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________________ १०६ : प्रमाण-परीक्षा हो, तो उससे कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता। स्पष्ट है कि स्वलक्षण (विशेष), जो गोत्वसामान्यसे रहित गोव्यक्तिरूप कहा जाता है, गोदोहन आदि अर्थक्रिया करने में असमर्थ है, क्योंकि उसमें क्रम और यौगपद्य (अक्रम) दोनों ही नहीं बनते, जैसे वे केवल सामान्यमें नहीं बनते । क्रम और यौगपद्यकी व्याप्ति परिणमनके साथ है और परिणमन क्षणिक स्वलक्षणमें सम्भव नहीं, जैसे वह नित्य सामान्यमें सम्भव नहीं है। इस तरह केवल स्वलक्षणमें परिणमनके अभावमें क्रम और योगपद्यका अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि उसके साथ उनकी व्याप्ति (अविनाभाव) है तथा क्रम और योगपद्यके अभावमें अर्थक्रियाका अभाव और अर्थक्रियाके अभावमें उसमें अवस्तुत्व ही प्राप्त होता है, वस्तुत्व नहीं। इसी प्रकार केवल सामान्यके विषयमें भी जान लेना चाहिए। अतः वस्तु सामान्य और विशेष अथवा द्रव्य और पर्याय उभयरूप प्रसिद्ध होती है । प्रतीति, प्रवृत्ति और प्राप्ति ये तीनों भी उसी प्रकारकी वस्तुमें दृष्टिगोचर होती हैं, अत एव वही प्रमाणका विषय है। उसके एक देशरूप केवल विशेष अथवा केवल सामान्यको विषय करनेवाला प्रमाणाभास कहा जायेगा। प्रमाण वही है जो यथार्थ वस्तुको ग्रहण करता है । किन्तु हाँ, प्रमाणके उभयात्मक विषयके एक देश (सापेक्ष विशेष अथवा सापेक्ष सामान्य) को जो ग्रहण करता है और इतर अंशका निषेध नहीं करता वह सुनय (सम्यक्नय) अर्थात् प्रमाणका एक देश है । किन्तु इतर अंशका निषेध करके मात्र एक अंश (केवल विशेष या केवल सामान्य अथवा केवल पर्याय या केवल द्रव्य)को ही जो ग्रहण करता है वह दुर्नय (मिथ्यानय) है। अतएव दुर्नयके विषय (केवल विशेष अथवा केवल सामान्य के साथ उपर्युक्त हेतु अनैकान्तिक नहीं है, क्योंकि वह प्रमाणका विषय नहीं हैं अर्थात् प्रमाणविषयत्व हेतु उसमें नहीं जाता। अतः प्रमाणका विषय द्रव्य-पर्यायरूप अथवा सामान्य-विशेषरूप अनेकान्तात्मक जात्यन्तर वस्तु है । इस प्रकार प्रमाणके विषयमें जो दार्शनिकोंका विवाद है वह निरस्त हो जाता है। यहाँ ध्यातव्य है कि बौद्ध केवल विशेषको, सांख्य केवल सामान्यको और नैयायिक-वैशेषिक स्वतंत्र दोनोंको प्रमाणका विषय स्वीकार करते हैं, जो उक्त प्रकारसे परीक्षा करनेपर युक्त नहीं हैं। ४. प्रमाणफल-परीक्षा इस अन्तिम (चौथे) प्रकरणमें प्रमाणके फलका विमर्श किया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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