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________________ प्रस्तावना : १०५ प्रकाशक है उसी प्रकार वह समस्त भाषाओं तथा कुभाषाओंकी भी प्रकाशक है, क्योंकि उनकी ध्वनि ( उपदेश ) सर्वभाषास्वभाववाली है । अतः वह परमागमरूप श्रुतज्ञान परमार्थसे परोक्ष प्रमाण सुसिद्ध है, क्योंकि वह निर्दोष कारणोंसे उत्पन्न है, जैसे प्रत्यक्ष || श्लो० १-६ ।।' इसलिए यह बिलकुल ठीक कहा कि 'प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो ही प्रमाण हैं, इन्हीं में अन्य सभी प्रमाणोंका भी समावेश हो जाता है । इस प्रकार प्रमाण - संख्या सम्बन्धी विवादका जो ऊपर निराकरण किया गया है वह युक्त और निर्दोष है, जैसे प्रमाण - लक्षणसम्बन्धी विवादका निराकरण || २-१७५ ।। ३. प्रमाणविषय - परीक्षा इस प्रकरण में प्रमाणके विषयका विवाद दूर करनेके लिए उसकी भी परीक्षा की जाती है । 'प्रमाणका विषय (प्रमेय) द्रव्य और पर्यायरूप वस्तु है, क्योंकि उसके सिवाय अन्य विषय सिद्ध नहीं होता।' इस अनुमानसे प्रमाणका विषयपरिच्छेद्य द्रव्य-पर्यायरूप अथवा सामान्य - विशेषरूप अवगत होता है । इस अनुमानमें प्रयुक्त हेतुको दूषित करनेके लिए बौद्ध कहते हैं कि 'प्रत्यक्षप्रमाण केवल स्वलक्षण (विशेष - पर्याय) को और अनुमान -प्रमाण केवल सामान्य (सन्तान - द्रव्य) को विषय करता अर्थात् जानता है, दोनोंको विषय करनेवाला कोई प्रमाण नहीं है । अतः उक्त अनुमानमें प्रयुक्त हेतु इन (प्रत्यक्षप्रमाणके विषय मात्र विशेष और अनुमानप्रमाणके विषय केवल सामान्य ) के साथ अनैकान्तिक (व्यभिचारी) है ।' बौद्धोंका यह कथन सम्यक् नहीं है, क्योंकि वैसी प्रतीति नहीं होती । प्रकट हैं कि प्रत्यक्ष केवल सामान्यकी तरह केवल विशेषको और अनुमान केवल विशेषकी तरह केवल सामान्यको विषय करनेवाला प्रतीत नहीं होता । यथार्थ में सामान्यरहित विशेष और विशेषरहित सामान्यरूप वस्तु होती, तो प्रत्यक्ष और अनुमान उक्त प्रकारकी वस्तुको विषय करते । किन्तु वस्तु तो सामान्य और विशेषरूप अथवा द्रव्य और पर्यायरूप जात्यन्तर अर्थात् तृतीय प्रकारकी उभयात्मक प्रतीति होती है तथा प्रवृत्ति करनेवाले व्यक्तिकी प्रवृत्ति भी उसी में होती है और प्राप्ति भी उसे उसीकी होती है । वस्तु उभयात्मक न हो, केवल विशेष अथवा केवल सामान्यरूप ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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