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________________ १०४ : प्रमाण-परीक्षा 'शब्दोंमें दोषोंकी उत्पत्ति वक्ताके अधीन हैं सो दोषोंका अभाव कहीं तो गुणवान वक्ताके कारण हो जाता है, क्योंकि उसके गुणोंसे दोष भाग जायेंगे और फिर वे शब्दमें संक्रमण नहीं कर सकते। अथवा वक्ताके न होनेसे वे निराश्रय नहीं रहेंगे ?' समाधान-इस शंकामें कुछ भी सार नहीं है, क्योंकि सर्वत्र गुणोंका अभाव ही दोष है और गुणोंका सद्भाव ही निर्दोषता है । अभाव दूसरो वस्तुके सद्भावरूप प्रसिद्ध है। यदि वह ( अभाव ) तुच्छरूप हो तो वह प्रमाणका विषय नहीं हो सकता । यथार्थमें 'गुणवान वक्ता' कहनेसे 'दोषरहित ववता' का ही बोध होता है। यदि ऐसा न हो तो गणों और दोषोंमें सहानवस्थान ( एक साथ न रहना) कैसे बन सकेगा। राग, द्वष और मोह ये निश्चय ही वक्ताके दोष हैं, जो असत्य कथनके कारण हैं और उनके विरोधी वैराग्य, क्षमा और तत्त्वज्ञान वक्ताके गण हैं, जो उनके अभावरूप हैं और सत्य कथनके कारण हैं, यह सभी परीक्षकोंका हार्द है। ___ एक बात और है । स्मृतिशास्त्रोंके रचयिता मनु आदि गुणवान् नहीं हैं, क्योंकि उनके उक्त प्रकारके गुण नहीं पाये जाते । यहाँ यह कहना भी युक्त नहीं कि मनु आदिका उपदेश निर्दोष वेदके आश्रयसे हुआ है, अतः वे गुणवान् हैं, क्योंकि वेदमें गुणवत्ता नहीं है। उसका कारण गुणवान् पुरुषका अभाव है। जिस प्रकार दोषवान् पुरुष वेदका कर्ता न होनेसे उसमें निर्दोषता सिद्ध होती है उसी प्रकार गुणवान् पुरुष भी उसका कर्ता न होनेसे उसमें अगुणवत्ता सिद्ध होगी। अतः वेद गुणवान् नहीं है। अगर कहा जाय कि वेदका अपौरुषेय होना ही उसका गुण है, तो अनादि कालीन म्लेच्छादिके व्यवहार (परम्परा) भी अपौरुषेय होनेसे गुणवान् कहे जायेंगे । अतः कहना चाहिए कि 'वेद निर्दोष नहीं है, क्योंकि गुणवान् पुरुष उसका कर्ता नहीं है, न गुणवान् पुरुष उसका व्याख्याता अथवा प्रवक्ता है, जैसे म्लेच्छादिके व्यवहार । अतः वेदसे जो ज्ञान होता है वह निर्दोष कारण जन्य नहीं है, तब वह प्रमाण कैसे हो सकता है, जैसे परमागमका ज्ञान प्रमाण है। इतने लम्बे अनादिकालमें अपौरुषेयवेदका उच्छेद भी सम्भव है, जिसका सर्वज्ञके विना कोई अतोन्द्रियार्थदर्शी उद्धारक नहीं है । स्याद्वादियोंके मतमें तो उक्त लम्बे समयमें उच्छिन्न परमागमकी परम्पराकी प्रकाशक सर्वज्ञसन्तति है । और जिस प्रकार सर्वज्ञसन्तति परमागमकी परम्पराकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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