SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना : १०३ स्वयं उसका उत्पादक नहीं है । एक सर्वज्ञ अपनी महिमासे उसका प्रकाशन करता है तथा दूसरा भी उसे प्रकाशित करता है । इस प्रकार सर्वज्ञकी परम्परा अनादि सिद्ध है। उनके द्वारा कहे शब्दोंसे उत्पन्न श्र तज्ञान पूर्णतया प्रमाण जानना चाहिए, क्योंकि वह निर्दोष कारणोंसे उत्पन्न होता है । बाह्य ( अनाप्तोक्त ) श्रु त पुरुषकृत पदरचनात्मक होनेसे दो प्रकारका है-१. आर्ष और २. अनार्ष अथवा संक्षिप्त और विस्तृत । जो निर्दोष ऋषियोंके द्वारा कहे गये वचनोंसे उत्पन्न है वह आर्ष श्रुतज्ञान है और निर्बाध होनेसे प्रमाण है और जो ऋषियोंके अतिरिक्त अन्य पुरुषोंके द्वारा कहे वचनोंसे उत्पन्न होता है वह अनार्ष श्रु तज्ञान है। यह दो प्रकारका कहा गया है-१. एकान्तवादियों द्वारा कथित, जो विभिन्न मतरूप है और २. लौकिक । यह दोनों प्रकारका श्रत मिथ्या है, क्योंकि वह राग-द्वष-मोहादि दोषकारणोंसे उत्पन्न होता है और इसलिए वह प्रमाण नहीं है। किन्तु सम्यग्दृष्टिका श्र तज्ञान सुनयकी विवक्षा रखनेके कारण प्रमाण है ॥ श्लो० १-७।।' शंका-निर्दोष कारणोंसे उत्पन्न होनेके कारण श्रु तज्ञानको प्रमाण सिद्ध करनेपर चोदना ( वेद ) ज्ञान भी प्रमाण होना चाहिए, क्योंकि वह भी पुरुषगत दोषोंसे रहित चोदना ( वेद) से उत्पन्न होता है और चोदना सर्वथा अपौरुषेय है । कहा भी है 'चोदनाजन्य ज्ञान प्रमाण है, क्योंकि वह निर्दोष कारणोंसे उत्पन्न होता है, जैसे लिंगसे, आप्तवचनसे और इन्द्रियोंसे होनेवाला ज्ञान ।' समाधान-उक्त शंका यक्त नहीं है, क्योंकि 'निर्दोष कारणोंसे उत्पन्न' शब्दके द्वारा 'गुणवान् कारणोंसे उत्पन्न' यह अर्थ अभिप्रेत है, लिंगज्ञान, आप्तवचनज्ञान और इन्द्रियज्ञान इन तीनोंमें भी वही अर्थ लिया गया है। प्रकट है कि लिंगमें अपौरुषेयतारूप निर्दोषता नहीं है, अपितु साध्यके साथ अविनाभावनियमका निश्चय होना रूप गुणके सद्भावसे गुणवत्तारूप निषिता पायी जातो है। इसी तरह आप्तवचनमें अविसंवाद गुणके कारण गुणवत्ता है तथा चक्षु आदि इन्द्रियोंमें निर्मलता आदि गुणोंके रहनेसे गुणवत्ता है । .. शंका-कारणकी निर्दोषता दोषरहितता है। वह कहीं दोषोंके विरोधी गुणोंके सद्भावसे होती है, जैसे मनु आदि ऋषियोंके द्वारा रचित स्मृतियोंमें। और कहीं दोषोंके कारणके अभावसे वह (दोषरहितता) होती है । जैसे वेदमें । वही कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy