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१०२ : प्रमाण-परीक्षा रचनेकी शक्ति ईश्वरमें कही जाय, तो वह अनीशकी तरह अनन्तशवित कैसे हो सकता हैं ? तृतीय पक्ष भी सम्यक् नहीं है, क्योंकि समस्त वाचकों (वर्ण-पद-वाक्यों) का प्रकाशन ही उसका प्रयोजन है, जैसे समस्त वाच्यार्थका प्रकाशन अथवा समस्त जगत्की रचना उसका प्रयोजन है। प्रतिपाद्यजनोंके अनुरोधसे किन्हीं ही वर्णादिकोंका प्रणयन माननेपर जगत्के उपभोक्ता प्राणियोंके अनुरोधसे किन्हीं ही जगत्के कार्योंकी सृष्टि होगी, सबकी नहीं। फलतः ईश्वरके द्वारा जो कार्य नहीं रचे गये उनके साथ 'कार्यत्व' हेतु व्यभिचारी होनेसे वह समस्त कार्योको ईश्वरनिमित्तक सिद्ध नहीं कर सकेगा ॥२, १६७॥ ___ यदि कहें कि समस्त प्रकारके वर्णादिवाचकोंके समूहको जाननेकी इच्छा रखनेवाला कोई प्रतिपाद्य ही सम्भव नहीं है, तो यह कथन उचित नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञका उपदेश प्रतिग्राहक (सर्वकल्याणकारी) नहीं हो सकेगा। इसे सम्भव माननेपर प्रत्येक सर्गमें समस्त वर्णादिकोंका प्रणेता ईश्वर अनुवादक ही सिद्ध होगा, उत्पादक कभी सिद्ध न होगा। इसलिए अनेक ही सर्वज्ञ मानना चाहिए, एक ईश्वरकी कल्पना व्यर्थ है। तथा जिस प्रकार एक सर्वज्ञ किसी वस्तुको 'नयी' कहता है उसीको दूसरा सर्वज्ञ 'पुरानी' बतलायेगा और इस तरह अनेक सर्वज्ञोंकी कल्पना करनेपर परस्पर विरोध आता है और वस्तुकी व्यवस्था असम्भव है। उसी प्रकार एक ईश्वरकी भी अनेक सर्गोंमें प्रवृत्ति माननेपर उसके अनेक उपदेश मानने होंगे। सो पूर्व सर्गमें जिस वस्तुको ईश्वरने 'नयी' कहा उसे ही उसने उत्तर सर्गमें 'पुरानी' बतलाया और इस तरह एक ईश्वरके माननेपर भी परस्पर विरोध आता है। यदि कहा जाय कि एक ईश्वर एक वस्तुको 'नयी पुरानी' एक कालमें ही नहीं बतलाता, इसलिए परस्पर विरोध नहीं आता, तो अनेक सर्वज्ञोंके भी कालभेदसे 'नयी पुरानी' बतलानेपर कैसे परस्पर विरोध आता है। अतः अनादि एक ईश्वरकी कल्पना व्यर्थ है, क्योंकि उसका साधक कोई प्रमाण नहीं है ।
सोपायविशेषसिद्ध अनेक सर्वज्ञ तो प्रमाणसिद्ध हैं और वे चिरतर कालतक विच्छेदको प्राप्त होनेपर भी प्रवाहसे परमागमके अभिव्यंजकअनुवादक हैं, क्योंकि प्रयत्नके बाद उसकी अभिव्यक्ति होती है। अतः 'कथंचित् प्रयत्नका अविनाभावी' हेतु उसे कथंचित्पौरुषेय सिद्ध करता है । उसीको पद्यों द्वारा बताया जाता है
'परमागमकी परम्परा अनादिनिधन है । असर्वज्ञकी तरह कोई सर्वज्ञ
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