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प्रस्तावना : १०७ प्रमाणके फलपर विमर्श करनेपर वह प्रमाणसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न प्रतीत होता है, क्योंकि वह प्रमाणका फल है । प्रमाणका फल प्रमाणसे न सर्वथा भिन्न होता है और न सर्वथा अभिन्न ।
स्मरणीय है कि बौद्ध प्रमाणके फलको प्रमाणसे सर्वथा अभिन्न और सांख्य तथा नैयायिक-वैशेषिक सर्वथा भिन्न स्वीकार करते हैं। ग्रन्थकार इन दोनों ( अभेदवादियों और भेदवादियों ) के मतोंकी समीक्षा करते हुए कहते हैं कि उक्त दोनों मत युक्त नहीं हैं, क्योंकि अनुमानसे प्रमाणका फल प्रमाणसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न दोनों सिद्ध होता है । वह अनुमान इस प्रकार हैं
'प्रमाणसे फल कथंचित्-करण और क्रियाके भेदकी अपेक्षासे भिन्न है और कथंचित्-एक प्रमातारूप आधारको अपेक्षासे वह अभिन्न है, क्योंकि वह प्रमाणका फल हैं।'
शंका-हान, उपादान और उपेक्षाबुद्धि रूप फल ( परम्परा ) के साथ हेतु अनेकान्तिक है, क्योंकि वह सर्वथा भिन्न होता है ?
समाधान-उक्त शंका युक्त नहीं हैं, क्योंकि हानादिबुद्धिरूप परम्पराफल भी एक प्रमाता आत्मामें होनेके कारण प्रमाणसे अभिन्न सिद्ध है। यथार्थमें जो वस्तुको सम्यक् जानता है, वही छोड़ने योग्यको छोड़ता, ग्रहण करने योग्यको ग्रहण करता और उपेक्षायोग्यकी उपेक्षा करता हैं। यदि उसे (परम्पराफलको) प्रमातासे भिन्न माना जाय, तो अन्य प्रमाताकी तरह उस प्रमाताके प्रमाण और फलमें प्रमाण-फल भावकी व्यवस्था नहीं हो सकती । अतः परम्पराफलके साथ, जो हानादि बुद्धिरूप हैं, उक्त हेतु अनेकान्तिक नहीं है ।
शंका-अज्ञाननिवृत्तिरूप साक्षात् प्रमाणफलके साथ हेतु व्यभिचारी है, क्योंकि वह प्रमाणसे सर्वथा अभिन्न होता है ?
समाधान-यह शङ्का भी विचारपूर्ण नहीं है, क्योंकि उनमें करण और भावसाधनका स्पष्ट भेद है। निश्चय ही प्रमाण करणसाधन' होता है, क्योंकि वह स्वार्थनिर्णय (अज्ञाननिवृत्ति)में साधकतम (असाधारण कारण) होता है और स्वार्थनिर्णय (अज्ञाननिवृत्ति) रूप फल भावसाधन (क्रिया)
१. प्रमीयते येन तत्प्रमाण मिति करणसाधनम् । २. प्रमितिमात्रं प्रमाणमिति भावसाधनम् ।
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