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________________ १०० : प्रमाण-परीक्षा वर्णोंका सद्भाव उससे पूर्व भी विद्यमान रहता है। यह कहना भी युवत्त नहीं कि 'उन वर्णों के समान वर्णोंका सद्भाव उससे पूर्व रहता है, उन्होंका नहीं, जैसे घटादिक', क्योंकि इस प्रकार उन वर्णोंका अनुवादक उत्पादक क्यों नहीं हो जायेगा ? वर्णोके अनुवादसे पहले भी उन्हींके समान वर्णोका सद्भाव रहनेसे अनुवादित होनेवाले वर्ण उसी समय होते हैं। फलतः कोई भी वर्णीका अनुवादक नहीं बन सकेगा, सभी उत्पादक ही सिद्ध होंगे । जिस प्रकार कुम्हार आदि घड़ा आदिके उत्पादक हैं, अनुकारक नहीं, उसी प्रकार वर्णोके भी उत्पादक हैं और इस तरह अनुवादकका व्यवहार नहीं हो सकेगा। यदि कहें कि पूर्वोपलब्ध वर्ण और वर्तमान वर्ण दोनोंमें सादृश्य होनेसे उनमें एकत्वका उपचार हो जाता है, अतः उन वर्णों को पीछे बोलनेवाला अनुवादक ही है, क्योंकि 'उसने वर्णों को कहा है, मैंने नहीं' इस प्रकारसे स्वतंत्रताका परिहार होकर परतंत्रताका अनुसरण होता है, तब तो जैसे वह वर्णोंका पठितानुवादक है उसी तरह उनका पाठयिता भी कहा जा सकता है, क्योंकि उसका भी स्वातंत्र्य नहीं है, सभी अपने उपाध्यायसे पढ़नेके कारण उनके अधीन हैं। अतः इस प्रकार कहा जाना चाहिए____ 'इस जगत्में कोई पुरुष वर्गों को स्वतंत्रतापूर्वक प्राप्त नहीं करता, जिस प्रकार इसके लिए दूसरोंने वर्णों को कहा है उसी प्रकार यह वर्णों को दूसरोंके लिए कहेगा और दूसरे भी इसी तरह अन्योंके लिए उन वर्णों को कहेंगे, इस तरह सम्प्रदाय (परम्परा) को न तोड़नेवाले व्यवहारके द्वारा इन वर्गों में अनादित्व सिद्ध होता है ॥१,२॥ फलतः सर्वज्ञ भी अनुवादक ही है, क्योंकि पूर्व-पूर्व सर्वज्ञके द्वारा कहे गये ही चौंसठ वर्णोंका उत्तरोत्तरवर्ती सर्वज्ञों द्वारा अनुवाद होता है । यदि पूर्व सर्वज्ञके द्वारा कहे वर्ण उपलब्ध न हों तो उत्तरवर्ती सर्वज्ञ असर्वज्ञ हो जायेगा। इस प्रकार जो अनादि सर्वज्ञ-परम्परा मानते हैं उनके मतमें कोई सर्वज्ञ वर्णोका उत्पादक नहीं है, वह उनका अनुवादक है। द्वितीय पक्ष (अर्थात् पदवाक्यात्मक प्रवचनका सर्वज्ञ उत्पादक है) भी सम्यक नहीं है, क्योंकि प्रवचनके पद-वाक्य भी पूर्व-पूर्व सर्वज्ञों द्वारा कहे गये ही हैं, उन्हींका उत्तरोत्तरवर्ती सर्वज्ञ अनुवाद करते हैं। प्रवचन (आगम) हमेशा अंग-प्रविष्ट, जिसके बारह भेद हैं और अंगबाह्य, जिसके अनेक (चउदह) भेद हैं इन दो रूपोंमें विभक्त रहता है । उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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