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________________ प्रस्तावना : ९९ निरस्त हो जाती है । हेतु अनैकान्तिक भी नहीं है, क्योंकि विपक्षमें कहीं वह रहता नहीं । विरुद्ध भी वह नहीं है, क्योंकि अगुणवान् वक्ताके शब्दोंसे जन्य श्रुतज्ञान, जिसमें बाधकाभाव सुनिश्चित हो, और जिसे वादी तथा प्रतिवादी दोनों स्वीकार करते हों, असम्भव है तथा परस्पर विरोध भी है । जो कथंचित् अपौरुषेय शब्दोंसे उत्पन्न श्रुतज्ञान है वह गुणवान् व्याख्याताके व्याख्यात शब्दोंसे उत्पन्न होने के कारण निर्दोष कारणोंसे जन्य सिद्ध है । इस लिए वह सत्य है । इस प्रकार स्याद्वादियोंके लिए कोई दोष नहीं है । पर्यायार्थिकनयकी प्रधानता और द्रव्यार्थिकनयकी गौणतासे कथन करने पर श्रुतज्ञान गुणवान् वक्त के शब्दोंसे जनित सिद्ध होता है तथा द्रव्यार्थिकनयकी प्रधानता और पर्यायार्थिकनयकी गौणताकी विवक्षा करनेपर वह गुणवान् व्याख्याता के व्याख्यात शब्दोंसे जनित भी उपपन्न हो जाता है । ध्यातव्य है कि शब्द न सर्वथा पौरुषेय प्रमाणसे सिद्ध होता है और न अपौरुषेयसे । शंका—'विचारप्राप्त शब्द पौरुषेय ही है, क्योंकि वह प्रयत्नका अविनाभावि है, जैसे पटादिक' इस अनुमानसे आगमको, जो दो प्रकारका है - १. अंगप्रविष्ट और २. अंगबाह्य, और अंगप्रविष्ट द्वादशांग (बारह अंगों ) रूप तथा अंगबाह्य अनेक भेद ( चउदह) रूप है, पौरुषेय मानना ही युक्त है, जैसे महाभारत आदि ? समाधान—उक्त शंका ठीक नहीं है, क्योंकि यह बतलाना आवश्यक है कि हेतु 'सर्वथा प्रयत्नका अविनाभावी' विवक्षित है अथवा 'कथंचित् प्रयत्नका अविनाभावी ?' प्रथम पक्ष असिद्ध है, क्योंकि स्याद्वादी द्रव्यार्थिककी अपेक्षा आगमको प्रयत्नका अविनाभावी स्वीकार नहीं करते । द्वितीय पक्ष विरुद्ध है, क्योंकि उससे आगम कथंचित् अपौरुषेय भी सिद्ध होता है । इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि 'प्रवचन प्रयत्नका अविनाभावी है' इसका क्या मतलब है ? क्या उच्चारक पुरुषके प्रयत्नके अनन्तर उसकी उपलब्धि होती है या उत्पादक पुरुषके प्रयत्नके अनन्तर वह उपलब्ध होता है ? प्रथम विकल्प स्वीकार करने पर उच्चारक पुरुषकी अपेक्षा प्रवचन अपौरुषेय ही सिद्ध होता है, क्योंकि उसका प्रवाह विद्यमान रहता है । द्वितीय विकल्प मानने पर पुराणपुरुषों द्वारा रचित काव्यप्रबन्ध ही पौरुषेय सिद्ध होंगे, प्रवचन नहीं, क्योंकि अनादिनिधन होनेसे उसका उत्पादक पुरुष नहीं है । 'सर्वज्ञ उसका उत्पादक है', यह भी नहीं, क्योंकि प्रश्न होगा कि वह वर्णात्मक प्रवचनका उत्पादक है अथवा पदवाक्यात्मक प्रवचनका ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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