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९८ : प्रमाण-परीक्षा ज्ञान) होनेसे अन्यत्र होनेवाले प्रत्यक्षमें भी विसंवादकी सम्भावना होनेसे वह भी प्रमाण नहीं हो सकेगा। ___ यदि कहा जाय कि सीपमें होनेवाला चाँदीका ज्ञान तो प्रत्यक्षाभास है, अतः उसमें विसंवाद हो सकता है, सत्य प्रत्यक्षमें नहीं, जैसे अनुमान, तो श्रुतज्ञानाभाससे विसंवाद सम्भव है, सत्य श्रुतज्ञानसे वह कैसे हो सकता है। यहाँ नहीं कहा जा सकता कि सत्य श्रुतज्ञान असिद्ध है, क्योंकि लोकमें कितना ही व्यवहार उसीकी सत्यता पर आधृत है। दूसरे, सत्य श्रुतज्ञानकी साधिका युक्ति भी मौजूद है। वह यह है'श्रोत्रमतिपूर्वक होनेवाला श्रुतज्ञान, जिसका प्रकरण चल रहा है, सत्य ही है, क्योंकि वह निर्दोष कारणोंसे उत्पन्न है, जैसे प्रत्यक्ष आदि ।' वह दो प्रकारका है-१. सर्वज्ञके वचनोंको सुननेसे होनेवाला और २. असर्वज्ञ (अस्मदादि) के वचनोंको सुनकर होनेवाला। सो यह दोनों प्रकारका श्रुतज्ञान निर्दोष कारणोंसे उत्पन्न है, क्योंकि गुणवान् वक्ताके द्वारा उच्चरित शब्दोंसे वह होता है।
शंका-'नदीके किनारे लड्डुओंके ढेर पड़े हैं' ऐसा हास्यसे कहे गये किसी गुणवान् वक्ताके शब्दोंसे उत्पन्न श्रुतज्ञानके साथ, जो असत्य है, 'निर्दोष कारणोंसे उत्पन्न' साध्यको सिद्ध करनेके लिए दिया गया 'गुणवान् वक्ताके द्वारा उच्चरित शब्दोंसे वह होता है' हेतु व्यभिचारी (अनेकान्तिक) है, अतः वह साध्यका गमक नहीं है ?
समाधान—यह शंका भी उचित नहीं है, क्योंकि हँसी-मजाक करनेवाला वक्ता गुणवान् नहीं हो सकता, हँसी-मजाक ही दोष है, जैसे अज्ञान आदि।
शंका-विचारप्राप्त श्रोत्रमतिपूर्वक होनेवाला श्रुतज्ञान गुणवान् वक्ताके द्वारा उच्चरित शब्दोंसे उत्पन्न है, यह कैसे सिद्ध है ?
समाधान-वह इस प्रकार सिद्ध है। हम कह सकते हैं कि 'विचारप्राप्त श्रुतज्ञान गुणवान् वक्ताके द्वारा उच्चरित शब्दोंसे उत्पन्न है, क्योंकि उसके बाधकोंका अभाव सुनिश्चित हैं। स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष अर्थको सिद्ध करनेवाला प्रत्यक्ष, अनुमेय अर्थका साधक अनुमति और अत्यन्त परोक्ष अर्थका बोधक आगम ये तीनों भिन्न विषय होनेसे श्रुतज्ञानके बाधक नहीं हैं, अतः श्रुतज्ञानमें बाधकाभाव सिद्ध है। देशान्तर, कालान्तर
और पुरुषान्तरकी अपेक्षासे भी उसमें संशय न होनेके कारण 'सुनिश्चित' विशेषण भी हेतुमें सुसिद्ध है, अतः श्रुतज्ञानके असिद्ध होनेकी आशंका
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