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प्रस्तावना : ९७
है, क्योंकि अज्ञानकी निवृत्ति उसीसे संभव है, अज्ञानरूप वचनात्मक परार्थानुमान से नहीं ।
यह 'अनुमान परोक्ष प्रमाण है, क्योंकि वह अविशद है, जैसे श्रुतज्ञान', इस प्रकार अनुमानका विस्तृत निरूपण किया गया ।
श्रुत-ज्ञान
श्रुतज्ञानका स्वरूप क्या है ? श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायकर्म - का क्षयोपशमविशेष, जो अन्तरंग कारण है, होनेपर और बहिरंग कारण मतिज्ञानके होनेपर मनके विषयको लेकर होनेवाला अविशद ज्ञान श्रुतज्ञान है, यह श्रुतज्ञानका स्वरूप है ।
शंका - केवलज्ञान और तीर्थंकरनामक विशिष्ट पुण्यप्रकृतिके उदयका निमित्त पाकर होनेवाली भगवान् तीर्थंकरकी दिव्यध्वनिसे उत्पन्न और गणधरदेवको प्राप्त श्रुतज्ञानका उक्त श्रुतज्ञानलक्षणद्वारा संग्रह नहीं होता, अतः उक्त लक्षण अव्याप्त है ?
समाधान- उक्त शंका युक्त नहीं है, क्योंकि उक्त श्रुतज्ञान भी श्रोत्रमतिज्ञानपूर्वक होनेसे उक्त लक्षणद्वारा संग्रहीत हो जाता है, जैसे प्रसिद्ध मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मन:पर्ययज्ञानीके वचनोंसे उत्पन्न प्रतिपाद्य (शिष्य) जनोंका श्रुतज्ञान अथवा समुद्रके घोष, मेघों की गर्जना ( गड़गड़ाहट) आदिसे जन्य और उसके अविनाभावी पदार्थोंको विषय करनेवाला श्रुतज्ञान । इसलिए श्रुतज्ञानका उपर्युक्त लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव दोषोंसे रहित होनेके कारण निर्दोष है, जैसे ऊपर कहा गया अनुमानका लक्षण । यह श्रुतज्ञान प्रमाण है, क्योंकि वह अविसंवादी है, जैसे प्रत्यक्ष और अनुमान । श्रुतज्ञानमें अविसंवादीपना असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि उससे पदार्थका ज्ञान करके प्रवृत्ति करनेवाले पुरुषको किसी प्रकारका भ्रम आदि नहीं होता और अर्थ - क्रियामें सदा यथार्थता अवगत होती है, जैसे प्रत्यक्ष आदि होती है ।
शंका- श्रोत्रमतिपूर्वक उत्पन्न श्रुतज्ञानसे वस्तुको जानकर प्रवृत्त हुए पुरुषको कहीं अविसंवादीपना प्राप्त नहीं होता, अतः श्रुतज्ञान प्रमाण नहीं है, क्योंकि अन्यत्र भी वह अविसंवादी नहीं हो सकता ?
समाधान—— उक्त शंका युक्त नहीं है, क्योंकि इस तरह तो प्रत्यक्षादि भी प्रमाण सिद्ध नहीं हो सकेंगे। सीपमें चाँदीका ज्ञान करके प्रवृत्त हुए पुरुषको चाँदीसे होनेवाली अनुरागादि अर्थक्रिया में विसंवाद (विपरीत
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