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९६ : प्रमाण-परीक्षा
है' यह ठीक ही कहा गया है, क्योंकि उसके साथ हेतुओंके सभी भेद, चाहे वे अतिसंक्षेपसे या संक्षेपसे या विस्तारसे या अतिविस्तारसे कहे गये हों, व्याप्त हैं अर्थात् इन सभी हेतुभेदोंमें अन्यथानुपपन्नत्वके नियमका निश्चय होने से वे सम्यक् हेतु माने गये हैं । इस प्रकारके साधनसे जो शक्य ( अबाधित), अभिप्रेत (इष्ट) और अप्रसिद्ध साध्यको सिद्ध करनेके लिए विशिष्ट ज्ञान किया जाता है वह अनुमान है । किन्तु जो साध्य बाधित है, जैसे सर्वथा एकान्त, उसमें साधनकी प्रवृत्ति नहीं होती, क्योंकि उसमें वह विरुद्ध है, इसी तरह जो स्वयं अनिष्ट (अनभिप्रेत ) है वह भी साध्य नहीं हो सकता, क्योंकि अतिप्रसंग दोष होता है । तथा जो प्रसिद्ध है वह भी साध्य नहीं बन सकता, क्योंकि वह सिद्ध होनेसे उसे पुनः सिद्ध करना व्यर्थ है । अतः बाधित, अनभिप्रेत और सिद्ध ये तीनों साध्याभास हैं, क्योंकि वे साधनके विषय नहीं हैं । अकलंकदेव ने भी कहा है
'जो शक्य, अभिप्रेत और अप्रसिद्ध है वह साध्य है और उससे भिन्न अर्थात् अशक्य, अनभिप्रेत और प्रसिद्ध है वह साध्याभास है क्योंकि वह साधनका विषय नहीं होता । वह विरुद्ध ( बाधित - अशक्य ) आदि है । '
इस प्रकार उपर्युक्त साधनसे होनेवाला साध्यका विशिष्ट ज्ञान स्वार्थ अनुमान है, जो अभिनिबोधस्वरूप है और जो विशिष्ट मतिज्ञान है । उसकी 'अभिनिबोध' संज्ञा इस लिए है, क्योंकि साध्यको सिद्ध करनेके लिए अभिमुख ( प्रवृत्त) एवं नियमित (अन्यथानुपपन्नत्व के नियमसे सहित) साधनसे वह ज्ञान (अनुमान), जो तर्क ( ऊहा ) का फल है उत्पन्न होता है (अभि - अभिमुख + नि - नियमित + बोध = अभिनिबोध । ऐसा ज्ञान स्वार्थानुमान है। परार्थ अनुमान श्रोत्रमतिज्ञान और अश्रोत्रमत्तिज्ञानपूर्वक होनेके कारण अक्षरश्रुतज्ञान और अनक्षरश्रुतज्ञान है । किन्तु वचनात्मक परार्थानुमान मानना युक्त नहीं है, क्योंकि शब्द, चाहे प्रत्यक्षपरामर्शी (प्रत्यक्षोल्लेखी) हों और चाहे अनुमानपरामर्शी ( अनुमानोल्लेखी) सभी द्रव्यश्रुत ( पौद्गलिक) हैं, वे अज्ञाननिवृत्ति कराने में असमर्थ हैं, ज्ञानात्मक परार्थानुमान ही अज्ञान-निवृत्ति कराने में समर्थ है । यदि वचनात्मक परार्थानुमान माना जाय तो प्रत्यक्ष भी वचनात्मक परार्थ क्यों नहीं होगा, क्योंकि दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है - दोनों समान हैं । प्रतिपादक और प्रतिपाद्यजनोंके स्वार्थानुमान और परार्थानुमान के कार्य तथा कारण होनेसे अनुमानपरामर्शी वाक्य ( अनुमानावयवाक्यों ) को उपचारसे परार्थानुमान कहने में हमें विरोध नहीं है, उन्हें मुख्य परार्थानुमान नहीं माना जा सकता, मुख्य परार्थानुमान तो ज्ञानात्मक ही हो सकता
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