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________________ प्रस्तावना : ९५ पन्नत्वके नियमका निश्चय ही है, उसके होनेपर ही प्रतिपत्ता ( अनुमाता ) अपने भिन्न अभिप्रायवश हेतुभेदोंकी कल्पनाको भी अनेक प्रकारकी मान सकता है, उसके अभाव में नहीं, नहीं तो वे हेतु न कहे जाकर हेत्वाभास कहे जायेंगे । इस प्रकार यह हमारा सुनिश्चित मत है । उसमें किसी प्रकारकी बाधा नहीं है । सांख्य अवीत, वीत और वीतावीत ये तीन हेतुके भेद मानते हैं सो वे भो अन्यथानुपपन्नत्वके नियमके निश्चयका अतिक्रमण करके प्रतिष्ठित नहीं होते और न उपर्युक्त हेतुभेदोंसे अतिरिक्त हैं । नैयायिकों के सिद्धान्तानुसार केवलान्वयी आदि तीन हेतुओंके रूपमें ही उनका कथन है । किसी एक जगह साध्यधर्म और साधनधर्मका अविनाभावनियमरूप साहचर्यको ज्ञातकर दूसरी जगह साधनधर्मको देखकर साध्यधर्मका ज्ञान करना अवीतानुमान है । जैसे- गुण और गुणी परस्पर भिन्न हैं, क्योंकि वे भिन्न ज्ञानोंका विषय हैं, घट और पटकी तरह । सो यह केवलान्वयी कहा जाता है । यथार्थ में कथंचित् भेदको ही साध्य बनानेपर हेतुमें अन्यथानुपपन्नत्व सिद्ध होता है । सर्वथा भेदको साध्य बनानेपर तो गुणगुणीभावका विरोध होनेसे हेतु गमक नहीं हो सकता । किसी जगह एक धर्म (साध्य ) की व्यावृत्ति (अभाव) होनेपर दूसरे धर्म (साधन) की व्यावृत्ति (अभाव) को अविनाभावनियमसे सहित ज्ञातकर अन्य स्थानमें उस धर्म (साधन) के निश्चयसे साध्यकी सिद्धि करना वीतानुमान है। जैसे- 'जीवित शरीर आत्मासहित है, क्योंकि उसमें प्राणादि पाये जाते हैं।' इसीको केवलव्यतिरेकि माना गया है । आत्मा परिणामी होनेसे उसकी राखमें आत्माकी व्यावृत्ति होनेपर प्राणादिकी भी व्यावृत्ति नियमसे पायी जाती है । जो आत्माको निरन्वय क्षणिक अथवा कूटस्थ ( सर्वथा नित्य ) स्वीकार करते हैं उन्हींके मत में प्राणादि अर्थक्रियाकी उत्पत्ति नहीं बन सकती । तथा अवीत और वीत दोनोंका जिसमें लक्षण पाया जाये वह वीतावीत अनुमान है । इसीको अन्वयव्यतिरेकि कहा गया है । जैसे - 'पर्वत अग्निवाला है, क्योंकि उसमें धूम है'। इस अनुमानमें वीत और अवोत दोनोंके लक्षण अर्थात् अन्वय और व्यतिरेक दोनों पाये जाते हैं, इसलिए यह वीतावीत अथवा अन्वयव्यतिरेकि अनुमान माना गया है । अतः वीतावीत अतिरिक्त हेतु नहीं है । अत एव 'अन्यथानुवपन्नत्वके नियमका जिसमें निश्चय हो वह हेतु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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