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९४ : प्रमाण-परीक्षा
तीन रूप भी माना जा सकता है। केवलान्वयि हेतुमें तथोपपत्तिका नियम पाये जानेसे गमकताका कोई विरोध नहीं है। यही बात केवलव्यतिरेकि और अन्वयव्यतिरेकि हेतुओंमें भी समझना चाहिए।
यदि उक्त सूत्रकी यह व्याख्या करें कि कारणसे कार्यका अनुमान करना पूर्ववत् है, कार्यसे कारणका अनुमान शेषवत् है और अकार्यकारणसे अकार्यकारणका अनुमान सामान्यतोदृष्ट है, क्योंकि सामान्यतः उनमें अविनाभाव है, तो वह भी हमें अभिमत है, क्योंकि हम पहले ही संक्षेपमें उक्त सभी हेतुओंका संग्रह प्रतिपादन कर आये हैं। ___अगर उसको यह व्याख्या करें कि लिङ्ग-लिङ्गीसम्बन्धका कहीं निश्चय करके अन्यत्र प्रवृत्त होनेवाला हेतु पूर्ववत् है, प्रसक्तका निषेध करके शेषका अनुमान करनेवाला शेषवत् है, जिसे परिशेषानुमान भी कहा गया है और किसी विशिष्ट व्यक्तिमें सम्बन्ध (व्याप्ति) के ग्रहणपूर्वक सामान्यतः देखना सामान्यतोदृष्ट है, 'जैसे सूर्य गतिमान् है, क्योंकि एक देशसे दूसरे देशमें प्राप्ति होती है, देवदत्तकी तरह', तो यह व्याख्या भी स्याद्वादियोंके लिए तिरस्कृत नहीं है, क्योंकि उसके द्वारा पूर्वोक्त हेतुओंके विस्तारका ही विशेष प्रकाशन होता है। निश्चय ही सभी हेतु पूर्ववत् ही है, क्योंकि शेषवत् भी पूर्ववत् सिद्ध होता है। जो प्रसक्तका प्रतिषेध है वह परिशेषकी प्रतिपत्तिका अविनाभावी है। उसका पहले कहीं निश्चय किया जाता है तभी वह अन्यत्र साध्य (परिशिष्ट) की सिद्धिमें साधनके रूपमें प्रयुक्त होता है। सामान्यतोदृष्ट पूर्ववत् अनुमान है, क्योंकि गतिकी अविनाभाविनी ही देशान्तरप्राप्ति देवदत्त आदिमें देखी जाती है। यदि वह गतिकी अविनाभाविनी न हो तो वह अनुमान ही नहीं हो सकता । इसी तरह सभी हेतु शेषवत् ही हैं, यह भी कहा जा सकता है, क्योंकि धुमसे अग्निका अनुमान करने रूप पूर्ववत् भी प्रसक्त अनग्निका निषेध करके प्रवृत्त होता है। यदि अनग्निकी प्रसक्ति न हो तो अग्निमें विवाद न होनेसे अनुमान व्यर्थ हो जायगा । तथा देशान्तरप्राप्तिसे सूर्य में गतिका अनुमान करने रूप सामान्यतोदृष्ट भी सूर्यमें प्रसक्त अगतिका निषेध करनेसे शेषवत् सिद्ध होता है। अथवा सभी हेतु सामान्यतोदृष्ट ही हैं, क्योंकि सभी अनुमानोंमें सामान्यसे ही लिंग और लिंगीके सम्बन्ध (अविनाभाव)का ज्ञान किया जाता है, विशेषरूपसे उसका ज्ञान नहीं किया जा सकता। कुछ विशेषताकी दृष्टिसे हेतुभेद माने जायें तो हमें कोई आपत्ति नहीं है। जैसे भिन्न प्रकारसे हेतुभेदोंकी कल्पना की जाती है । हमारा कहना इतना ही है कि हेतुका प्रयोजक तत्त्व अन्यथानुप
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