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________________ प्रस्तावना : ९३ साधक और स्वयं भूत (सद्भाव-विधि) रूप हैं और इस लिए अभूत-भूत कहे जाते हैं ॥२॥ ___परम्पराकी अपेक्षा इस हेतुके कार्य, कारण, व्याप्य और सहचारीके भेदसे चार और इन प्रत्येकके चार-चार भेद बतलाये हैं ॥३॥ जिनके उदाहरण कारणविरुद्धकार्य, व्यापकविरुद्धकार्य, कारणव्यापकविरुद्धकार्य, व्यापककारणविरुद्धकार्य आदिके रूपमें ज्ञातव्य हैं। इस प्रकार इस हेतुके परम्परा भेद १६ हैं। इनमें इसी हेतुके पूर्वोक्त साक्षात् ६ भेदोंको सम्मिलित करनेपर इसके कुल २२ भेद कहे गये हैं ॥४॥ ___ जिसमें अन्यथानुपपत्ति हो वही हेतु है, और ऊपर कहे सभी हेतु अन्यथानुपपत्तिसे युक्त हैं। तथा अभूत-भूत (प्रतिषेधसाधक-विधिसाधन)के और भी इसी तरहके भेद जानना चाहिए ॥५॥ ___ भूत (सद्भाव-विधि) के साधक अभूत (प्रतिषेध) रूप साधनके भी मनीषियोंने अनेक भेद कहे हैं। अर्थात् भूत-अभूतके, जिसे विधिसाधकप्रतिषेधसाधन कहा जाता है, अनेक भेद हैं। इसी प्रकार अभूत (असद्भाव) के साधक अभूत (प्रतिषेध) रूप अर्थात् अभूत-अभूत साधनके भी अनेक भेद हैं, जिन्हें उदाहरणों द्वारा यथायोग्य समझ लेना चाहिए ॥६॥ ___ इस प्रकार लिंगके संक्षेपमें उपर्युक्त (भूत-भूत, भूत-अभूत, अभूत-भूत और अभूत-अभूत) चार भेद कहे गये हैं और अतिसंक्षेपमें उपलम्भ और अनुपलम्भ ये दो भेद प्रतिपादित किये हैं ॥७॥ उपर्युक्त विवेचनसे बौद्धों द्वारा कार्य, स्वभाव और अनुपलम्भके भेदसे तीन ही प्रकारके हेतुओंको माननेका नियम निरस्त हो जाता है, क्योंकि सहचर आदि भी पूर्वोक्त प्रकारसे अतिरिक्त हेतु सिद्ध हैं। इसी तरह नैयायिकों द्वारा प्रत्यक्षपूर्वक होने वाले अनुमानके पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट इन तीन भेदोंका स्वीकार भी निरस्त हो जाता है, क्योंकि उन्हें पूर्वोक्त सहचर आदि भी मानना अनिवार्य है। यदि कहा जाय कि अक्षपाद गौतमके न्यायसूत्रगत (१।११५) सूत्रका त्रिसूत्रीकरण करनेसे इस प्रकार व्याख्यान किया जा सकता है कि पूर्ववत्-शेषवत् केवलान्वयि, पूर्ववत्-सामान्यतोदृष्ट केवलव्यतिरेकि और पूर्ववत्-शेषवत्-सामान्यतोदृष्ट अन्वयव्यतिरेकि हेतु हैं, अतः उक्त दोष सम्भव नहीं है, तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि ऊपर कहे हेतुओंमें त्रैविध्य भी सम्भव है। अर्थात् उक्त हेतुओंको केवलान्वयि आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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