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प्रस्तावना : ८७ वस्तुएँ अनेकान्तस्वरूप हैं क्योंकि वे सत् हैं।' सत् वस्तु होती है, क्योंकि 'उसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पाया जाता है', ऐसा सूत्रकार गृद्धपिच्छका वचन है । यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि वस्तुके एक धर्मके साथ, जो सुनयका विषय है, सत्त्व हेतु व्यभिचारी है, क्योंकि वह वस्तुका अंश है और जो वस्तुका अंश है वह पूर्ण सत् नहीं है। २. सहचर हेतु-जहाँ साथमें रहनेवाले एकसे दूसरे साथमें रहनेवालेका अनुमान किया जाता है। जैसे 'आगमें स्पर्शसामान्य है, क्योंकि उसमें रूपसामान्य है।' यहाँ स्पर्शसामान्य रूपसामान्यका न कार्य हैं न कारण है। ___ इसी प्रकार रूपसामान्य भी स्पर्शसामान्यका न कार्य है और न कारण है, क्योंकि वे दोनों हमेशा सब जगह एक कालमें होनेके कारण सहचारी हैं। इसी विवेचनसे एकसामग्रीसे होनेवाले तथा साध्यके समकालवर्ती संयोगी और एकार्थसमवायी भी सहचर जानना चाहिए । जैसे समवायोमें कारणता है। ३. पूर्वचर-जहाँ पूर्ववर्तासे उत्तरवर्तीका अनुमान किया जाता है, जैसे-'शकटका एक मुहुर्त बाद उदय होगा, क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय हो रहा है।' यहाँ कत्तिकाका उदय पूर्ववर्ती है
और शकटका उदय उत्तरवर्ती । अतः कृत्तिकाका उदय पूर्वचर हेतु है । पूर्वपूर्वचर आदि परम्परा पूर्वचरहेतुओंका इसीमें संग्रह हो जाता है । ४. उत्तरचर-जहाँ उत्तरवर्तीसे पूर्ववर्तीका अनुमान किया जाता है। जैसे—'भरणी नक्षत्रका उदय हो चुका है, क्योंकि कृत्तिकाका उदय हो रहा है ।, यहाँ उत्तरवर्ती कृत्तिकाके उदयसे पूर्ववर्ती भरणीके उदयका अनुमान किया गया है । अतः कृत्तिकाका उदय उत्तरचर हेतु है । उत्तरोतरचर आदि परम्परा उत्तरचरहेतुओंका इसी हेतुमें समावेश हो जाता है।
इस प्रकार ये छह हेतु सद्भावरूप साध्यको सिद्ध करते हैं और स्वयं भी सद्भावरूप हैं। इसलिए ये विधिसाधक-विधिसाधन हेतु कहे जाते हैं।
प्रतिषेधरूप साध्यको सिद्ध करनेवाले प्रतिषेधसाधक-विधिसाधन हेतुके भी तीन भेद हैं-१. विरुद्ध कार्य, २. विरुद्ध कारण और ३. विरुद्ध अकार्यकारण । ये तीनों हेतु प्रतिषेध्य साध्यसे विरुद्ध होनेके कारण प्रतिषेधसाधक-विधिसाधन कहे जाते हैं। इनके उदाहरण निम्न प्रकार हैं
१. विरुद्ध कार्य-'यहाँ ठंडा स्पर्श नहीं है, क्योंकि धूम पाया जाता
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