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८८ : प्रमाण-परीक्षा है।' स्पष्ट है कि ठंडे स्पर्शसे विरुद्ध अग्नि है, उसका कार्य धूम है । उसके सद्भावसे ठंडे स्पर्शका अभाव सिद्ध होता है ।
२. विरुद्ध कारण-'इस पुरुषके असत्य नहीं है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान है।' प्रकट है कि असत्यसे विरुद्ध सत्य है, उसका कारण सम्यग्ज्ञान है । राग-द्वेषरहित यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । वह उसके किसो यथार्थ कथन आदिसे सिद्ध होता हुआ सत्यको सिद्ध करता है और वह भी सिद्ध होता हआ असत्यका प्रतिषेध करता है।
३. विरुद्धाकार्यकारण-इसके चार भेद हैं-१. विरुद्ध व्याप्य, २. विरुद्ध सहचर, ३. विरुद्ध पूर्वचर और ४. विरुद्ध उत्तरचर ।
१. विरुद्ध व्याप्य–'यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है।' यहाँ निश्चय ही शीतस्पर्शसे विरुद्ध अग्नि है और उसका व्याप्य उष्णता है ।
२. विरुद्ध सहचर-'इसके मिथ्याज्ञान नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन है।' यहाँ मिथ्याज्ञानसे विरुद्ध सम्यग्ज्ञान है और उसका सहचर (सहभावी) सम्यग्दर्शन है।
३. विरुद्ध पूर्वचर-'मुहुर्त्तान्तमें शकटका उदय नहीं होगा, क्योंकि रेवतीका उदय है।' यहाँ शकटोदयसे विरुद्ध अश्विनीका उदय है और उसका पूर्वचर रेवतीका उदय है।
४. विरुद्धोत्तरचर- 'एक मुहूर्तपूर्व भरणीका उदय नहीं हुआ, क्योंकि पुष्यका उदय है।' भरणीके उदयसे विरुद्ध पुनर्वसुका उदय है और उसका उत्तरचर पुष्यका उदय है।
ये छह साक्षात्प्रतिषेध्यसे विरुद्धकार्यादि हेतु विधिद्वारा प्रतिषेधको सिद्ध करनेके कारण प्रतिषेधसाधक-विधिसाधन हेतु कहे गये हैं।
परम्परासे होनेवाले कारणविरुद्धकार्य, व्यापकविरुद्धकार्य, कारणव्यापकविरुद्धकार्य, व्यापककारणविरुद्धकार्य, कारणविरुद्धकारण, व्यापकविरुद्धकारण, कारणव्यापकविरुद्धकारण और व्यापककारणविरुद्धकारण तथा कारणविरुद्धव्याप्यादि और कारणविरुद्धसहचरादि हेतु भी प्रतीत्यनुसार कहे जाना चाहिए। उनके भी उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं
१. कारणविरुद्धकार्य-'इसके शीतजनित रोमहर्षादिविशेष नहीं हैं, क्योंकि धूम है।' यहाँ प्रतिषेध्य रोमहर्षादिविशेषका कारण शीत है, उसका विरोधी अनल है, उसका कार्य धूम है।
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