________________
८६ : प्रमाण-परीक्षा
'जहां अन्यथानुपपन्नत्व है वहाँ पाँच रूपोंकी क्या आवश्यकता है और जहाँ अन्यथानुपपन्नत्व नहीं है वहाँ पाँच रूप रहकर भी कुछ नहीं कर सकते–व्यर्थ हैं।'
इस प्रकार अन्यथानुपपत्तिरूप नियमके निश्चयको ही हेतुका एक प्रधान लक्षण स्वीकार करना चाहिए, उसके होने पर त्रिलक्षण और पंचलक्षणका प्रयोग हम नहीं रोकते, क्योंकि प्रयोगशैली प्रतिपाद्योंके अनुसार सत्पुरुषों द्वारा स्वीकार की गयी है। यही कुमारनन्दि भट्टारकने कहा है
'अन्यथानुपपत्ति ही हेतका एक लक्षण है। किन्तु अवयवों (प्रतिज्ञा, हेतु आदि) का प्रयोग प्रतिपाद्योंकी आवश्यकतानुसार स्वीकार किया गया है।। २-११८
हेतु-भेद उपर्युक्त एकलक्षण हेतु सामान्यको अपेक्षा एक प्रकारका होकर भी विशेषकी अपेक्षा अतिसंक्षेपमें दो प्रकारका है-१. विधिसाधन और २. प्रतिषेधसाधन । उनमें विधिसाधनके तीन भेद कह गये हैं--१. कार्य हेतु २. कारण हेतु और ३. अकार्यकारण हेतु । अन्य सम्भव हेतुओंका इन ही तोनमें अन्तर्भाव हो जाता है । अतः वे इनसे अतिरिक्त नहीं हैं।
१. कार्य हेतु-जहाँ कार्यसे कारणका अनुमान किया जाता है। जैसे 'यहाँ अग्नि है, क्योंकि धूम है।' यहाँ धूम कार्यसे अग्नि कारणका अनुमान किया गया है। अतः 'धूम' कार्य हेतु विधिसाधन हेतु है । कार्यकार्य आदि परम्परा कार्य हेतुओंका इसीमें समावेश है।
२. कारण हेतू-जहाँ कारणसे कार्यका अनुमान किया जाता है वह कारण हेतु कहलाता है । जैसे 'यहाँ छाया है, क्योंकि छत्र है।' यहाँ छत्र कारणसे छाया कार्यका अनुमान किया गया है। अतः 'छत्र' कारण हेतु विधिसाधन हेतु है । कारण-कारण आदि परम्परा कारणहेतुओंका इसीमें अन्तर्भाव हो जाता है।
३. अकार्यकारण हेतु-जो न किसीका कार्य है और न कारण है उससे जहाँ अकार्यकारणरूप साध्यकी सिद्धि की जाती है वह अकार्यकारण विधिसाधन हेतु है। इसके चार भेद हैं-१. व्याप्य, २. सहचर, . ३. पूर्वचर और ४. उत्तरचर । इनके उदाहरण इस प्रकार हैं। १. व्याप्य हेतु-जहाँ व्याप्यसे व्यापकका अनुमान किया जाता है। जैसे-'सब
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org .