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________________ धर्म और समाज देशकी विभिन्न जैन संस्थाओं द्वारा बहुत से दिये गये, किन्तु वे लालाजीके समान समर्थ व्यक्तित्ववाले देशभक्त के सामने मच्छरोंकी गुनगुनाहट जैसे ही रहे । कई जैन पत्रोंमें भी कुछ समय तक ऊहापोह होता रहा, और फिर शान्त हो गया । तिलकके सामने बोलने की भी किसी जैन गृहस्थ या त्यागीकी हिम्मत नहीं हुई । सब यही समझते और मानते रहे कि उनकी बात सही है । राज-काज भी क्या बिना चाणक्य नीतिके चल सकता है ? किन्तु इसका सुन्दर जवाब जैनोंके पास इतना ही संभव था कि ऐसी संस्थामें हम अगर भाग ही न लें, तो पापसे बचे रहेंगे । ७० अचानक हिन्दुस्तान के कर्म-क्षेत्रके व्यास पीठपर एक गुजरातका तपस्वी आया, और उसने जीवन में उतारे हुए सिद्धान्तके बलपर लालाजीको जबाब दिया कि अहिंसा से निर्बलता नहीं आती है, अहिंसा में अपरिमित बल समाया हुआ है। उसने यह भी स्पष्ट किया कि अगर हिंसा वीरताकी ही पोषक होती या हो सकती, तो जन्मसे हिंसाप्रिय रहनेवाली जातियाँ भी भीरु नहीं दिखाई देतीं । यह जवाब अगर सिर्फ शास्त्र के आधारपर या 'कल्पनाके बलपर ही दिया गया होता, तो इसकी धज्जियाँ उड़ा दी गई होतीं और लालाजी जैसोंके सामने कुछ भी न चलती । तिलकको भी उस तपस्वीने जवाब दिया कि " राजनीतिका इतिहास दाव पेचों और असत्यका इतिहास तो है, किन्तु वह इतिहास यहीं समाप्त नहीं हो जाता । उसके बहुत से पृष्ठ अभी लिखे जानेको हैं । तिलकको यह दलील तो मान्य नहीं हुई, किन्तु उनके मनपर यह छाप अवश्य पड़ गई कि दलील करनेवाला व्यक्ति सिर्फ बोलनेवाला नहीं है । वह तो जो कहता है, सो करके दिखानेवाला है और सच्चा है । इसलिए तिलक एकाएक उसके कथनकी उपेक्षा नहीं कर सके और अगर करते भी तो वह सत्यप्राण कहाँ किसीकी परवाह करनेवाला था ! ܕܕ अहिंसा धर्मके समर्थ रक्षककी इस क्षमतापर जैनोंके घर मिठाई बाँटी गई; सब राजी हुए । साधु और गद्दीधारी आचार्य भी कहने लगे कि देखो लालाजीको कैसा जबाब दिया है ! महावीरकी अहिंसाको वास्तव में गाँधीजीने ही समझा है । सत्यकी अपेक्षा अहिंसाको प्रधानता देनेवाले जैनोंके लिए अहिंसाका बचाव ही मुख्य संतोषका विषय था । उन्हें इस बातसे बहुत वास्ता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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