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सम्प्रदाय और कांग्रेस
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पालन होता है ? यह तो जाति-भेदका पोषण करनेवाले और सगे भाइयोंको अलग माननेवाले लोगोंका शंभु-मेला-सा है। " कट्टर आर्यसमाजीको भी यदि इस प्रश्नका जबाब देना होता तो वह भी कहता, "अछतोद्धार और स्त्रीको पूर्ण सम्मान देनेका वेदसम्मत आन्दोलन तो कांग्रेसमें कुछ भी नहीं दिखाई देता।" इसी तरह किसी बाइबिलभक्त पादरी साहबसे अगर यही प्रश्न किया जाता तो हिन्दुस्तानी होते हुए भी वे यही जवाब देते कि " कांग्रेस स्वर्गीय पिताके राज्यमें ले जानेवाले प्रेम-पन्थका दरवाजा थोड़े ही खोल देती है ! " इस तरह एक समय था जब किसी भी सम्प्रदायके सच्चे अनुयायीके लिए कांग्रेस प्रवेश-योग्य नहीं थी, इसलिए कि उसको अपनी अपनी मान्यताके मूल सिद्धान्तोंका कांग्रेसकी प्रवृत्तिमें न अमल होता दिखाई पड़ता था, और न कल्पना ही होती थी।
समय बदला। लाला लाजपतरायने एक बार वक्तव्य दिया कि युवकोंको अहिंसाकी शिक्षा देना उनको उलटे रास्ते ले जाना है। अहिंसासे ही देशमें निर्बलता आ गई है । इस निर्बलताको अहिंसाकी शिक्षासे और भी उत्तेजना मिलेगी । लोकमान्य तिलकने भी कुछ ऐसे ही विचार प्रकट किये कि राजनीतिके क्षेत्रमें सत्यका पालन मर्यादित ही हो सकता है। इसमें तो चाणक्य-नीतिकी ही विजय होती है। यह समय अहिंसा और सत्यमें पूर्ण श्रद्धा रखते हुए भी आपत्तिके प्रसंगपर या दूसरे आपवादित प्रसंगोंपर अहिंसा और सत्यके अनुसरणका एकान्तिक आग्रह न रखनेवाले धार्मिक वर्गके लिए तो अनुकूल ही था । जो बात उनके मनमें थी, वही उनको मिल गई । किन्तु लालाजी या लो० तिलकके ये उद्गार जैनोंके अनुकूल नहीं थे । अब विचारशील जैन गृहस्थों और त्यागियों के सामने दो बातें आई, एक तो लालाजीके ' अहिंसासे निर्बलता आती है ' इस आक्षेपका समर्थ रीतिसे जवाब देना और दूसरी बात यह सोचना कि जिस कांग्रेसके महारथी नेता हिंसा और चाणक्य-नीतिका पोषण करते हैं, उसमें अहिंसाको परम धर्म माननेवाले जैन किस तरह भाग लें ? यह दूसरी बात जैन त्यागियोंकी प्राचीन मनोवृत्तिके बिल्कुल अनुकूल थी, बल्कि इससे तो उनको यह साबित करनेका नया साधन मिल गया कि कांग्रेसमें सच्चे जैन और विशेषकर त्यागी जैन भाग नहीं ले सकते । किन्तु पहले आक्षेपका जवाब क्या हो ? जवाब तो
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