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आस्तिक और नास्तिक
करता है | सच्ची बात कहनेवाले और भविष्य में जो विचार हमको या हमारी सन्ततिको अवश्यमेव स्वीकार करने योग्य होते हैं, उन विचारोंको प्रकट करने वाले मनुष्य को भी शुरू शुरू में रूढ़िगामी, स्वार्थी और अविचारी लोग नास्तिक कहकर गिराने का प्रयत्न करते हैं । मथुरावृन्दावन में मन्दिरोंकी संख्या बढ़ाकर उनकी पूजाद्वारा पेट भरनेवाले और अनाचारको पुष्ट करनेवाले पंडों या गुसाईयोंके पाखण्डका स्वामी दयानंदने विरोध किया और कहा कि यह तो मूर्ति-पूजा नहीं वरन् उदर-पूजा और भोग- पूजा है। काशी तथा गया में श्राद्ध आदि कराकर मस्त रहनेवाले और अत्याचारका पोषण करनेवाले पंडोंसे स्वामीजीने कहा- यह श्राद्ध - पिण्ड पितरोके तो नहीं पर · तुम्हारे पेटों में जरूर पहुँचता है। ऐसा कहकर जब उन्होंने समाज में सदाचार, विद्या और बलका वातावरण पैदा करनेका प्रयत्न किया, तब वेद-पुराणको माननेमाले पंडों के पक्षने स्वामीजीको नास्तिक कहा । इन लोगोंने यदि स्वामीजीको सिर्फ अपनेसे भिन्न मत - दर्शक के अर्थ में ही नास्तिक कहा होता, तो कोई दोष नहीं था किन्तु जो पुराने लोग मूर्ति और श्राद्ध में ही महत्त्व मानते थे उनको उत्तेजित करनेके लिए और उनके बीच में स्वामीजीकी प्रतिष्ठा घटाने के लिए ही उन्होंने नास्तिक शब्दका व्यवहार किया । इसी तरह मिथ्यादृष्टि शब्द की भी कदर्थना हुई है । जैन वर्ग में ज्यों ही कोई विचारक निकला और उसने किसी वस्तुकी उचित - अनुचितताका विचार प्रकट किया कि स्वार्थीप्रिय वर्गने उसको मिथ्यादृष्टि कहा । एक यति कल्पसूत्र पढ़ता है और लोगों से उसकी पूजा कराकर जो दान-दक्षिणा पाता है उसे स्वयं ही हजम कर लेता है और दूसरा यति मंदिरकी आमदनीका मालिक हो जाता है और उससे अनाचार बढ़ाता है, यह देखकर जब कोई उसकी अयोग्यता प्रकट करनेको उद्यत होता है तो शुरू में स्वार्थी यतियों ही उस विचारकको अपने वर्ग में से निकाल देनेके लिए मिथ्यादृष्टि तक कह डालते हैं । इस तरह शुरू शुरू में नास्तिक और मिथ्या दृष्टि शब्द सुधारक और विचारक लोगोंके लिए व्यवहारमें आने लगे और अब वे ऐसे स्थिर हो गये हैं कि अधिकांशतः विचारशील सुधारक और किसी वस्तुकी योग्यता- अयोग्यताकी परीक्षा करनेवाले के लिए ही ब्यवहृत होते हैं। " पुराने प्रतिबन्ध, पुराने नियम, पुरानी मर्यादाएँ और पुराने
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