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धर्म और समाज
रीति-रिवाज, देश, काल और परिस्थितिको देखते हुए अमुक अंशमें उचित नहीं जान पड़ते । उनके स्थानमें अमुक-प्रकारके प्रतिबन्ध और अमुक प्रकारकी मर्यादाएँ रखी जायँ, तो समाजको लाभ हो सकता है । अज्ञान और संकुचितताकी जगह ज्ञान और उदारता स्थापित हो, तब ही समाज सुखी रह सकता है। धर्म अगर विसंवाद बढ़ाता है तो वह धर्म नहीं हो सकता।" ऐसी सरल
और सर्वमान्य बातें करनेवाला कोई निकाला कि तुरन्त उसको नास्तिक, मिथ्यादृष्टि और जैनाभास कहना शुरू कर दिया जाता है। इस तरह शब्दोंके उपयोगकी इस अंधाधुंधीका परिणाम यह हुआ है कि आजकल नास्तिक शब्दकी ही प्रतिष्ठा बढ़ गई है । एक जमानेमें राजमान्य और लोकमान्य शब्दोंकी ही प्रतिष्ठा थी। जब समाज आगे बढ़ा तो उसे राजमान्य शब्द खटका
और राजमान्य होनेमें कई बार समाजद्रोह और देशद्रोह भी मालूम हुआ । और राजद्रोह शब्द जो एक समय बड़े भारी अपराधीके लिए ही व्यवहारमें आता था और अपमानसूचक समझा जाता था उसकी प्रतिष्ठा बढ़ गई । आज तो देश और समाज में ऐसा वातावरण पैदा हो गया है कि राजद्रोह शब्द पूजा जाता है और अपनेको राजद्रोही कहलानेके लिए हजारों ही नहीं वरन् लाखों स्त्री-पुरुष निकल पड़ते हैं और लोग उनका सत्कार करते हैं। सिर्फ हिन्दुस्तानका ही नहीं परन्तु सारी दुनियाका महान् सन्त आज एक महान् राजद्रोही गिना जाता है। इस तरह नास्तिक और मिथ्यादृष्टि शब्द जो किसी समय केवल अपनेसे भिन्न पक्षवाले के लिए व्यवहारमें आते थे और पीछे कुछ कदर्थक भावमें आने लगे थे आज प्रतिष्ठित हो रहे हैं । " अछूत भी मनुष्य है । उससे सेवा लेकर तिरस्कार करना बड़ा भारी अपराध है। वैधव्य मर्जीसे ही पालन किया जा सकता है, जबर्दस्ती नहीं । " ये विचार जब गाँधीजीने प्रकट किये तो उनको भी मनुके उत्तराधिकारी काशी के पंडितोंने पहले नास्तिक कहा और फिर मधुरशब्दोंमें आर्यसमाजी कहा और जब बछड़ेके वधकी चर्चा आई तो बहुतोंने उनको हिंसक बताया। यदि गाँधीजीने राज्यप्रकरणमें पड़कर इतनी बड़ी साम्राज्य-शक्तिका सामना न किया होता और यदि उनमें अपने विचारोंको जगद्व्यापी करनेकी शक्ति न होती, तो वे जो आज कहते हैं वही बात अंत्यजों या विधवाओं के
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