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________________ धर्म और समाज 'शास्त्रोंमें व्यवहृत हुआ है और दूसरा 'जैनाभास' शब्द है जो दिगम्बर ग्रंथों में प्रयुक्त हुआ है । ये दोनों शब्द अमुक अंशमें जैन किन्तु कुछ बातोंमें विरोध मत रखनेवालोंके लिए प्रयुक्त हैं। निन्हव शब्द तो कुछ प्राचीन भी है 'परन्तु जैनाभास अर्थात् 'कृत्रिम जैन' शब्द बहुत पुराना नहीं है और विलक्षण रीतिसे इसका प्रयोग हुआ है । दिगम्बर शाखाकी मूलसंघ, माथुरसंघ, काष्ठासंघ आदि अनेक उपशाखाएँ हैं। उनमें जो मूलसंघके न हों ऐसे सभी व्यक्तियोंको जैनाभास कहा गया है, जिनमें श्वेताम्बर भी आ जाते हैं। श्वेताम्बर शास्त्रकारोंने भी प्राचीन कालमें तो अमुक मतभेदवाले अमुक पक्षको ही निन्हव कहा था परन्तु बादमें जब दिगम्बर शाखा बिल्कुल अलग हो गई, तो उसको भी निन्हव कहा जाने लगा। इस तरहसे हम देख सकते हैं कि दो मुख्य शाखाएँ-श्वेताम्बर और दिगम्बर-एक दूसरीको भिन्न शाखा के रूप में पहचानने के लिए अमुक शब्दका प्रयोग करती हैं। जब एक ही शाखामें उपभेद होने लगते हैं तो उस समय भी एक उपसम्प्रदाय दूसरे उपसम्प्रदाय के लिए इन्हीं शब्दोंका व्यवहार करने लगता है। इस अवसरपर हम एक विषयपर लक्ष्य किये बिना नहीं रह सकते कि आस्तिक और नास्तिक शब्दोंके पीछे तो सिर्फ हकार और नकारका ही भाव है जब कि सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि शब्दोंके पीछे उससे कहीं ज्यादा भाव है। इनमें अपना यथार्थपन और दूसरे पक्षका भ्रान्तपन विश्वासपूर्वक सूचित किया जाता है । यह भाव जरा उग्र और कुछ अंशमें कटु भी है। इसलिए 'पहलेवाले शब्दोंकी अपेक्षा बादके शब्दोंमें विशेष उग्रता सूचित होती है। फिर ज्यों ज्यों सांप्रदायिकता और मतांधता बढ़ती गई त्यों त्यों कटुता ज्यादा उग्र होती गई और उसके परिणामस्वरूप निन्हव और जैनाभास जैसे उग्र शब्द 'प्रतिपक्षके लिए अस्तित्व में आ गये। यहाँ तक तो सिर्फ इन शब्दोंका कुछ इतिहास आया। अब हमको वर्तमान स्थितिपर गौर करना चाहिए । आज कल इन शब्दोंके बारेमें बहुत गोटाला हो गया है । ये शब्द अपने मूल अर्थमें नहीं रहे और नये अर्थमें भी ठीक और मर्यादित रीतिसे व्यवहारमें नहीं आते। सच कहा जाय तो आजकाल ये शब्द नंगा, लुच्चा और बाबा शब्दोंकी तरह सिर्फ गालीके तौरपर अथवा तिरस्कार रूपमें हर कोई व्यवहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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