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'धर्म और उसके ध्येयकी परीक्षा
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हम इन दोनों मुसाफिरोंके चित्र सदैव देखते हैं। इस परसे यह कैसे कहा जा सकता है कि प्रथम चार्वाककी अपेक्षा दुसरा परलोकवादी पैसेंजर बढ़ा-चढ़ा है। एकने जब कि संकीर्ग दृष्टिसे सबके प्रतिकी जिम्मेदारियोंका भंग कर कमसे कम अपना आराम तो साधा और वह भी अखीर तक, तब दूसरेने प्रयत्न किये बिना यदि आराम मिला तो रसपूर्वक उसका आस्वादन किया, परन्तु जहाँ जहाँ अपने आरामके लिए और दूसरोंकी बेआरामीको दूर करनेके लिए प्रयत्न करनेका प्रसंग आया वहाँ वहाँ परलोक और आगेका श्रेय साधनेके निरे भ्रममें चार्वाककी अपेक्षा भी अधिक जवाबदारियोंका भंग किया। यह कोई रूपक नहीं है, प्रतिदिन होनेवाले व्यवहारकी बात है। लड़का वयस्क होकर माता पिताको बिरासत पानेके लिए तो उत्सुक हो जाता है, किन्तु माता पिताकी सेवाका प्रसंग आनेपर उसके सामने परलोकवादियोंके उपदेश शुरू हो जाते हैं । ' अरे मूर्ख ! आत्माका हित तो कर ले, माता पिता तो प्रपंच है।' ये महाशय फिर परलोक सुधारने चलते हैं और वहाँ फिर वही गैर जवाबदारीका अनवस्था-चक्र चलना शुरू हो जाता है। ___कोई युवक सामाजिक जवाबदारीकी तरफ झुकता है तो परलोकवादी गुरु कहते हैं-'जात-पाँतके बंधन तोड़कर तू उसको विशाल बनानेकी बातमें तो पड़ा है, पर कुछ आत्माका भी विचार करता है ? परलोकको देख । इस प्रपंचमें क्या रखा है ?' वह युवक गुरुकी बात सर्वथा न माने तो भी भ्रमवश हाथमें लिया हुआ काम तो प्रायः ही छोड़ देता है। कोई दूसरा युवक वैधव्यके कष्ट निवारणार्थ अपनी सारी संपत्ति और सामर्थ्यका उपयोग एक विधवाके पुनर्विवाहके लिए करता है या अस्पृश्योंको अपनाने और अस्पृश्यताके निवारणमें करता है, तो आस्तिक-रत्न गुरुजी कहते हैं- 'अरे विषयके कीड़े, ऐसे पापकारी विवाहोंके प्रपञ्चमें पड़कर परलोक क्यों बिगाड़ता है ?' और वह बेचाग भ्रान्त होकर मौन लेकर बैठ जाता है । गरीबोंकी व्यथा दूर करनेके लिए राष्ट्रीय खादी जैसे कार्यक्रममें भी किसीको पड़ता देखकर धर्मत्राता गुरु कहते हैं--'अरे यह तो कर्मोका फल है । जिसने जैसा किया, वह वैसा भोगता है । तू तो तेरा सँभाल । जिसने आत्माको साध लिया, उसने सब साध लिया। परलोक जैसा उच्च ध्येय होना चाहिए।' ऐसे उपदेशसे यह युवक भी कर्त्तव्यसे च्युत हो जाता है । हम इस तरह के कर्तव्य-भ्रंश समाज समाज और घर घरमें
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