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________________ धर्म और समाज 'पकड़कर इस प्राप्त हुए परलोककी उपेक्षा करेगा और बिगाड़ेगा । इस तरह धर्मका ध्येय परलोक है, इस मान्यताकी भी गैरसमझका परिणाम चार्वाकके परलोकवादकी अस्वीकृतिकी अपेक्षा कोई दूसरा होना संभव नहीं । ___ यदि कोई कहे कि यह दलील बहुत खीच-तानकी है तो हमें उदाहरणके लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है। जैन समाज आस्तिक गिना जाता है, परलोक सुधारनेका उसका दावा है और उसके धर्मका ध्येय परलोक सुधारनेमें ही पूर्ण होता है, ऐसा वह गर्वपूर्वक मानता है । परन्तु अगर हम जैन समाजकी प्रत्येक प्रवृत्तिका बारीकीके साथ अभ्यास करेंगे तो देखेंगे कि वह परलोक तो क्या साधेगा चार्वाक जितना इहलोक भी नहीं साध सकता। एक चार्वाक मुसाफिर गाड़ी में बैठा। उसने अपने पूरे आरामके लिए दूसरोंकी सुविधाकी बलि देकर, दूसरोंको अधिक असुविधा पहुँचा कर पर्याप्तसे भी अधिक जगह घेर ली। थोड़ी देर बाद उतरना होगा और यह स्थान छोड़ना पड़ेगा, इसका उसने कुछ भी ख्याल नहीं किया। इसी तरह दूसरे मौकोंपर भी वह सिर्फ अपने आरामकी धुनमें रहा और दूसरोंके सुखकी बलि देकर सुखपूर्वक सफर करता रहा। दूसरा पैसेंजर परलोकवादी जैन जैसा था। उसको जगह तो मिली जितनी चाहिए उससे भी ज्यादा, पर थी वह गन्दी । उसने 'विचार किया कि अभी ही तो उतरना है, कौन जाने दूसरा कब आ जाय, चलो, इसीसे काम चला लो । सफाईके लिए माथा-पच्ची करना व्यर्थ है। इसमें वक्त खोनेके बदले 'अरिहन्त' का नाम क्यों ही न लें, ऐसा विचार कर उसने उसी जगहमें वक्त निकाल दिया । दूसरा स्टेशन आया, स्थान बदलनेपर दूसरी जगह मिल गई । वह थी तो स्वच्छ पर बहुत सँकरी । प्रयत्नसे अधिक जगह की जा सकती थी । परन्तु दूसरोंके साथ वादविवाद करना परलोककी मान्यताके 'विरुद्ध था। सो वहाँ फिर परलोकवाद आ गया-भाई, रहना तो है थोड़ी देरके लिए, व्यर्थकी माथापच्ची किस लिए ? ऐसा कहके वहाँ भी उसने अरिहन्तका नाम लेकर वक्त निकाला। इस तरह उसकी लम्बी और अधिक दिनोंकी रेलकी और जहाजकी सारी मुसाफिरी पूरी हुई। आराम मिला या कष्ट-जहाँ उसको 'कुछ भी करनेकी जरूरत पड़ी-वहीं उसके परलोकवादने हाथ पकड़ लिया"और इष्ट स्मरणके लिए सावधान कर दिया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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