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________________ धर्म और उसके ध्येयकी परीक्षा - इसलिए अब इस उत्तरार्धपर आना चाहिए । हरेक देशमें अपनेको आस्तिक मानने या मनवानेवाला वर्ग, चार्वाक जैसे केवल इहलोकवादी या प्रत्यक्ष सुखवादी लोगोंसे कहता आया है कि तुम नास्तिक हो । क्यों कि तुम वर्तमान जन्मसे उस पार किसीका अस्तित्व नहीं माननेके कारण कर्म-वाद और उससे फलित होनेवाली सारी नैतिक-धार्मिक जवाबदेहियोंसे इनकार करते हो । तुम मात्र वर्तमान जीवनकी और वह भी अपने ही जीवनकी स्वार्थी संकीर्ण दृष्टि रखकर सामाजिक और आध्यात्मिक दीर्घदर्शितावाली जवाबदेही के बंधनोंकी उपेक्षा करते हो, उनसे इंकार करते हो और वैसा करके केवल पारलौकिक ही नहीं, ऐहिक जीवन तककी सुव्यवस्थाका भंग करते हो । इसलिए तुम्हें सिर्फ आध्यात्मिक हितके लिए भी नास्तिकतासे दूर रहना चाहिए । इस प्रकार आस्तिक गिने जानेवाले वर्गका प्रत्यक्षवादी चार्वाक जैसे लोगोंके प्रति आक्षेप या उपदेश होता है । इसके आधारसे कर्मसिद्धान्तवादी कहो.. आत्म-वादी कहो, या परलोकवादी कहो, उनका क्या सिद्धान्त है, यह अपने आप स्पष्ट हो जाता है। __ कर्म-वादीका सिद्धान्त यह है कि जीवन सिर्फ वर्तमान जन्ममें ही पूरा नहीं हो जाता। वह पहले भी था और आगे भी रहेगा । ऐसा कोई भी भला या बुरा, स्थूल या सूक्ष्म, शारीरिक या मानसिक परिणाम जीवनमें नहीं उत्पन्न होता जिसका बीज उस व्यक्तिके द्वारा वर्तमान या पूर्व जन्म में न बोया गया हो। इसी तरह एक भी स्थूल या सूक्ष्म मानसिक, वाचिक या कायिक कर्म नहीं है कि जो इस जन्ममें या पर जन्ममें परिणाम उत्पन्न किये विना विलुप्त हो जाय । कर्मवादीकी दृष्टि दीर्घ इस लिए है कि वह तीनों कालोंको व्याप्त करती है, जब कि चार्वाककी दृष्टि दीर्घ नहीं है क्यों कि वह सिर्फ वर्तमानको स्पर्श करती है। कर्मवादीकी इस दीर्घ दृष्टि से फलित उसकी वैयक्तिक, कौटुम्बिक, सामाजिक या विश्वीय जवाबदारियों और नैतिक बंधनोंमें, और चार्वाककी अल्प दृष्टिसे फलित होनेवाली जवाबदारियों और नैतिक बंधनों में बड़ा अन्तर है। यदि यह अन्तर बराबर समझ लिया जाय और उसका अंशमात्र भी जीवन में उतारा जाय तब तो कर्मवादियोंका चार्वाकके प्रति आक्षेप सच्चा गिना जाय और चार्वाकके धर्म-ध्येयकी अपेक्षा कर्म-वादीका धर्म-ध्येय उन्नत और ग्राह्य है-यह जीवन-व्यवहारसे मान लिया जाय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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