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धर्म और समाज
उसके संतोषार्थ कहते जाते हैं कि चींटी नहीं मारनी चाहिए, बिना छाना हुआ पानी नहीं पीना चाहिए, अधिक पानी न ढोलना चाहिए क्योंकि हम जैन कहलाते हैं । इतने शिक्षणसे किशोर-मानस इतना ही सीख सकता है कि अमुक नियमोंका पालन करना ही जैनधर्म है । वह किशोर अपने गुरुजनोंके माथ धर्मस्थानोंमें जाता है या घरपर ही धर्मगुरुओंका दर्शन करता है । तब ये धर्मगुरु कहलाते हैं, जैनगुरु ऐसे होते हैं, इनकी ऐसी वेश-भूषा होती है, इनको इस प्रकार प्रणाम करना चाहिए, आदि विधियाँ जान लेता है । अब तक तो उसने केवल जैनधर्म जैसे साधारण शब्द ही ग्रहण किये थे, उनका अर्थ भी उसने आसपास के वातावरणसे साधारण रूपसे ग्रहण किया या, अब कुछ बुद्धि होने के साथ ही उसका शिक्षण अन्य दिशाकी ओर चला जाता है। धर्मगुरु यदि स्थानकवासी हो तो उसे ऐसी शिक्षा मिलती है कि जो मुँहपत्ती बाँधते हैं, जो अमुक प्रकारके आचारका पालन करते हैं, वे ही सच्चे जैन गुरु हैं । बालक इतने शिक्षणके पश्चात् आगे बढ़ता है । धर्म-पुस्तकोंको पढ़ते समय पढ़ता है कि अमुक पुस्तकें ही जैनशास्त्र हैं और ये ही सच्चे धर्मशास्त्र हैं।
इसी प्रकार वह भिन्न भिन्न क्रियाकांड, उपासना और आचार जो उसके आसपास प्रचलित होते हैं उनको ही जैन क्रिया, जैन उपासना और जैन आचार कहने लगता है और क्रमशः उसके हृदयमें इन संस्कारोंकी पुष्टि होने लगती है कि जैन गुरु तो जैसे मैंने देखे हैं वैसे ही हैं, अन्य नहीं। जैन क्रिया, जैन उपासना और जैन आचार जैसे मैं मानता हूँ वे ही हैं, अन्य नहीं। इस प्रकार धर्मी और जैनधर्म आदि महत्त्वपूर्ण शब्दोंके भाव उसके मनमें बहुत ही संकीर्ण रूपमें चित्रित हो जाते हैं और उमरकी वृद्धि के साथ साथ उसके सामने एक नया चित्र खड़ा होता है कि जैनधर्म ही सत्य है, अन्य सभी धर्म असत्य एवं सत्यसे पराङ्मुख हैं और जैनधर्म भी उसके लिए उसकी जन्मभूमिमें प्रचलित सम्प्रदायसे अधिक कुछ नहीं होता।
आगे जब यह किशोर तरुण होकर जिज्ञासाके वेगमें अन्य प्रकारके धर्मगुरु, अन्य प्रकारके धर्मशास्त्र, अन्य प्रकारके धर्मस्थान और अन्य प्रकारके क्रियाकांडउपासना आदि देखता है, उनके विषयमें जानता है तब उसके सामने बड़ी
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