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________________ सम्प्रदाय और सत्य २१ केवल उन्मार्गका अवलम्बन ही नहीं किया है किन्तु बहुत-सी बातोंमें तो प्रतीत होता है कि उसने अपने आदर्शको चकनाचूर कर डाला है। देशभेद, जातिभेद, भाषाभेद, आचारभेद और संस्कारभेद, ऐसे अन्य अनेक भेदोंकी भावनाओंको प्रमाणसे अधिक आश्रय देकर उसने एकताके साधनकी कितनी हत्या कर डाली है, यह मनुष्य जातिके इतिहासके अभ्यासियोंसे कहनेकी अवश्यकता नहीं। हममें जाने अनजाने साम्प्रदायिक भेद बुरी तरहसे किस प्रकार घर कर लेता है, उससे व्यक्तिगत, सामाजिक, धार्मिक और राष्ट्रीय दृष्टि से कैसे कैसे बुरे परिणाम होते हैं और उन परिणामोंसे बचनेके लिए किस दृष्टिकी आवश्यकता है इसकी चर्चा कर लेना आवश्यक जान पड़ता है। अन्य पंथों और संप्रदायोंका संस्कार रखनेवाले इतर व्यक्तियोंका मुझे चाहे जितना अनुभव हो फिर भी वह स्वपंथ और स्वानुभवकी दृष्टिसे धुंधला ही होगा, अतएव मैं यद्यपि यहॉपर जैन पंथ या जैन संप्रदायको लक्ष्य करके स्वानुभूत जैसा चित्र खींचता हूँ किन्तु प्रत्येक पाठक उसे अपना ही चित्र मान कर, उसकी भिन्न भिन्न घटनाओंको अपनी अनुभूत घटनाओंके साथ तुलना करके इस चित्रको साधारण रूप दे तो प्रस्तुत चर्चा के समझने में बहुत सरलता हो सकती है । जन्मके प्रारम्भिक कालमें जब एक बालक माँकी गोदमें क्रीड़ा करता है तभीसे वह स्तनपान और बाल-जगतके अवलोकनके साथ साथ अनजाने ही साम्प्रदायिक संस्कार संग्रह करने लगता है। थोड़ी-सी बड़ी. अवस्था होनेपर वे संस्कार "जय जय'' "राम" " भगवान्" आदि सरल शब्दोंमें व्यक्त होते है। माँ बाप आदि बालकसे धर्म-शब्दका उच्चारण करवाते हैं। बालक भी अनुकरण करता है। फिर उसकी ग्रहण और उच्चारण शक्तिके बढ़ते ही उससे “ जैनधर्म" आदि शब्द उच्चारण करवाये जाते हैं । थोड़े ही समय में बालक अपनेको अमुक धर्मका कहने लगता है। उस समय उसके हृदय में धर्म, पंथ या संप्रदायकी कोई स्पष्ट कल्पना नहीं होती, फिर भी वह परंपरासे प्राप्त संस्कारोंसे अपनेको अमुक धर्म अथवा अमुक संप्रदायका मानने लगता है। और थोड़ी बड़ी अवस्था होने पर उसके माता-पिता, पितामहादि यदि जैन हों तो बालकको यह समझानेका प्रयत्न करते हैं कि हम जैन कहलाते हैं। अवस्था अवलोकन और जिज्ञासाकी साथ ही साथ वृद्धि होती है । पिता पितामहादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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