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सम्प्रदाय और सत्य
साम्प्रदायिक दृष्टि और सत्य दृष्टिका क्या अर्थ है, इन दोनों के बीच में क्या भेद है और साम्प्रदायिक दृष्टिके स्थान में सत्य दृष्टिके शिक्षण पोषण और विकासकी कितनी आवश्यकता है, यह सब शिक्षितों के लिए जानना अत्यावश्यक है । शिक्षित ही सामान्य लोकवर्गके प्रतिनिधि होने के कारण मार्गदर्शक 1 बन सकते हैं । यदि वे इसका यथार्थ एवं असाधारण ज्ञान रखते हों तो अशिक्षित और अर्द्धशिक्षित जनवर्गको विश्वकी, राष्ट्रकी और जातिकी एकता की ओर अपने असाधारण प्रयत्नसे ले आ सकते हैं और अयोग्य मार्गसे उनकी चित्तवृत्तिको पराङ्मुख करके योग्य दिशाकी ओर प्रवृत्त कर सकते हैं ।
बेक्टिरिया जैसे सूक्ष्मतम जन्तुओं और इतर प्राणियों में भी अभेदकी भूमिका है; किन्तु वह आदर्श नहीं है क्योंकि यह भूमिका ज्ञान अथवा बुद्धिसाधित नहीं, अज्ञानमूलक है । इसमें भेदके ज्ञानका अभाव तो है पर अभेदका ज्ञान नहीं है | मनुष्यत्वका आदर्श अभेदका है किन्तु वह अभेद ज्ञानमूलक है । बुद्धि विचार और समझपूर्वक अनुभवगम्य एकता ही मनुष्यत्वका शुद्ध आदर्श है । भेदोंकी विविधताओंका भान होनेपर भी उससे ऊपर उठकर जितने अंश में दृष्टि अभेद, एकता या समन्वयको अनुभवगम्य कर सकेगी उतने अंश में कहा जाएगा कि वह मनुष्यत्व के आदर्शके नजदीक पहुँची । इस आदर्श में केवल आध्यात्मिकता ही नहीं किन्तु शुद्ध एवं सुखावह व्यावहारिकताका भी सामंजस्य है । प्राणिमात्र के प्रति आत्मौपम्य की दृष्टि, समग्र विश्व में परस्पर भ्रातृभाव और विशुद्ध राष्ट्रीयता, ये सभी उक्त आदर्श के जुदे जुदे और भिन्न भिन्न कक्षावाले स्वरूप हैं, अंग है ।
अहंकार, अज्ञान और विपरीत समझसे मनुष्य जातिने आदर्शको छोड़कर
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