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________________ नीति, धर्म और समाज नीतिका निर्माण करते हैं, देशकालानुसार उसमें परिवर्तन करते हैं और उसका पालन करवाते हैं। फिर भी समाजकी शुद्धिका कार्य अवशिष्ट रह जाता है। यह कार्य कोई महाजन, पंडित या राजा सिर्फ अपने पदके कारण सिद्ध नहीं कर सकता । जब कि यही कार्य मुख्य है, और यही कार्य करना परमात्माका सन्देश है । जिस व्यक्तिको इस कार्यकी लगन हो उसे दूसरोंको उपदेश देनेकी बजाय अपने जीवनमें ही धर्म लाना चाहिए। यदि जीवन में धर्मका प्रवेश हुआ तो उतने अंशमें उसका जीवन समाजकी शुद्धि सिद्ध करेगा, फिर भले ही वह दूसरोंको शुद्ध होनेका उपदेश वचन या लेखनसे न देता हो । समाजकी शुद्धि जीवन-शुद्धिमें समाविष्ट है और जीवन-शुद्धि ही धर्मका साध्य है। इसलिए यदि हमें समाज और अपने जीवनको नीरोग रखना है तो स्वयं अपनेमें उक्त धर्म है या नहीं, और है तो कितनी मात्रामें, इसका निरीक्षण करना चाहिए । धार्मिक माने जानेवाले पर्वके दिनोंमें यदि अपना निरीक्षण करनेकी आदत डाली जाय तो वह सदैवके लिए स्थायी होगी और ऐसा होनेसे हमारे सामने उपस्थित विशाल समाज और राष्ट्रके अटकके रूपमें हमने भी अपना कुछ हिस्सा अदा किया है, ऐसा कहा जायगा। [पर्युषण-व्याख्यानमाला, बम्बई, १९३२। अनु०-प्रो० दलसुख भाई ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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