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सम्प्रदाय और सत्य
उलझन खड़ी हो जाती है । इस प्रकारकी उलझनमें उसने यह पहला ही कदम रखा है । उसको ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे द्वारा स्वीकृत पंथकी अपेक्षा ये सभी भिन्न प्रकारके हैं। इन सबको जैनधर्मकी कोटिमें परिगणित कर सकते हैं या नहीं ? साधारणतः ऐसी दुविधाका समाधान अयोग्य रीतिसे होता है। साम्प्रदायिक शिक्षणके द्वारा हृदयमें ये भावनाएँ बलात् भरी जाती हैं कि अमुक ही मौलिक जैन हैं, अन्य नहीं । इनके अतिरिक्त अन्य असली जैन नहीं हैं किन्तु विकृत हैं। फिर तरुणकी जिज्ञासा उत्तरोत्तर बलवती होती जाती है । वह पूछता है कि अमुक ही मौलिक हैं और अन्य नहीं, इसका क्या कारण है ? प्रथम उसने मूर्ति एवं मन्दिरोंको धर्म-कोटिमें नहीं गिना था । पर अव तो वह प्रश्न करता है कि इन सबको और प्रथमकी अपेक्षा ज्ञात अन्य शास्त्रोंको भी जैन-शास्त्रोंकी कोटिमें क्यों नहीं गिना जाए ? अब तो वह देहात या ग्रामवासी मिटकर नगरवासी बन जाता है और वहाँ वह स्थानकवासीके उपरांत श्वेतांबर मूर्तिपूजक-परंपराकी सभी विधियोंका निरीक्षण करके उसको भी जैनधर्मके प्रदेशमें परिगणित करना चाहता है और प्रथम ग्रहण किये हुए शब्दोंके भावोंका विस्तार करता है। तत्पश्चात् वह युवक विद्यापीठ या अन्य स्थलोंमें प्रथमतः अज्ञात किसी तीसरे जैन पंथके विषय में कुछ सुनता है, जानता है कि वस्त्ररहित मुनि ही जैन गुरु कहलाने के अधिकारी हैं, वस्त्रोंसे परिवेष्टित नहीं । स्थानकवासी एवं श्वेताम्बरोंद्वारा स्वीकृत शास्त्र मूल जैन शास्त्र नहीं, ये तो बनावटी और पीछेके हैं, सच्चे जैन शास्त्र सभी लुप्त हो गये हैं। फिर भी यदि मानना हो तो अमुक अमुक आचार्योद्वारा निर्मित शास्त्र ही मूल शास्त्रों के समकक्ष हो सकते हैं, अन्य नहीं । मूर्ति माननी चाहिए किंतु नग्न प्रतिमा ही । जब वह युवक इस प्रकार प्रथम नहीं सुनी हुई बातोंको सुनता है या पढ़ता है, तब उसकी दुविधाका पार नहीं रहता। धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाले जो जो शब्द उसके हृदय में घर किये हुए थे उनके विरुद्ध यह नया शिक्षण उसे व्यग्र कर डालता है । पर इस व्यग्रतासे भी सत्य मार्गकी प्राति नहीं होती। अंतमें वह प्राप्त हुए नवीन शिक्षणको मिथ्या कहकर पुरातन पिता पितामहादिसे प्राप्त परंपरागत संस्कारोंका पोषक बन जाता है। अथवा प्रथमके संस्कारोंको एक ओर रखकर नवीन शिक्षणके अनुसार इन धार्मिक शब्दोंके अर्थको पर्यालोचना करता है । यह तो केवल जैनियोंके मुख्य तीन विरोधी
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