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________________ त्यागी-संस्था १२९ चले आनेवाले समाजों में सुधारका प्राण फूँकते हैं और तब उनकी त्यागीसंस्थाओंका चक्र आगे चलता है । समय बीतनेपर उस तख्तपर उनके अनुगामी या प्रतिस्पर्धी रूपमें दूसरे पुरुष आते हैं और वे भी अपनी दृष्टिके अनुसार परिवर्तन करके संस्थाओंके कुंठित चक्रोंको वेगवान् और गतिशील बनाते हैं । इसलिए हर एक संस्थाका जीवन टिकाऊ रखनेके लिए सुधार अनिवार्य है । जिसमें सुधार या परिवर्तन नहीं होता, उसका अंतमें नाश या लोप हो जाता है । जगत में कभी कभी ऐसे व्यक्ति उत्पन्न होते हैं जिनकी समग्र बुद्धि, अखंड पुरुषार्थ और अद्भुत लगन किसी तत्त्वकी शोधके पीछे अथवा किसी कर्तव्य के पालन में लगे रहते हैं । ये व्यक्ति देह धारण और पोषण के लिए कुछ जरूरी साधनों का उपयोग करते हैं फिर भी उनकी आतुरता उस शोध और कर्तव्यपालन की ओर होनेके कारण उनकी इच्छा और दिलचस्पीका विषय मुख्यतः वह शोध और वह कर्तव्य ही बन जाता है; और प्रत्यक्ष रूपसे दूसरे साधारण' मनुष्योंकी तरह साधनोंका उपयोग करनेपर भी उनकी इच्छा और रसवृत्ति उस उपयोगकी ओर नाम मात्र ही होती है । इन व्यक्तियोंका संपूर्ण लक्ष्य और इच्छा-बल साध्य में ही लगा रहता है, इसलिए उनका उपभोग कमसे कम, केवल साधन जितना, और किसीको भाररूप या बाधक न हो उतना ही, होता है । उच्च और विशाल ध्येयकी साधना और रसवृत्तिके कारण ऐसे व्यक्तियोंमें विकार, अभिमान, संकुचितता आदि दोष स्थान नहीं पा सकते । इसीलिए ऐसे व्यक्तियोंका जीवन स्वाभाविक रूपसे त्याग-मय होता है । ऐसी एकाध विभूतिके कहीं प्रकट होते ही तुरन्त उसके त्यागकी शीतल छायाका आश्रय प्राप्त करनेके लिए भोग-संतप्त प्राणी उसके आसपास इकट्ठे हो जाते हैं और थोड़े बहुत अंशों में उसकी साधनाकी उम्मेदवारी करनेके लिए भीतर या बाहरसे थोड़ा बहुत त्याग स्वीकार कर लेते हैं । इस तरह काल-क्रम से एक व्यक्ति के विशिष्ट त्यागके प्रभाव से एकत्र हुए जनसमूहसे एक संस्थाका निर्माण होता है । इसलिए त्यागी संस्थाके आविर्भावका मूल बीज तो किसी महाविभूतिके त्यागमें ही रहता है । त्यागी - संस्थाका बीज जब किसी भी संस्थामें एकसे अधिक व्यक्ति हो जाते हैं तब उसको अपना पालन-पोषण तो करना ही पड़ता है । परन्तु संस्थाके पास प्रारंभ में सामान्य तौर से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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