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________________ १३० धर्म और समाज कोई संपत्ति या निश्चित आमदनी नहीं होती, इसलिए उसका पालन-पोषण केवल उसकी प्रतिष्ठासे होता है और प्रतिष्ठा सद्गुणों और जनसमाजके लिए उपयोगी गुणोंपर अवलंबित है । सद्गुणोंकी ख्याति और लोकजीवन के लिए उपयोगी होनेका विश्वास जितने अंशमें अधिक उतने ही अंशमें उसकी प्रतिष्ठा अधिक और जितने अंशमें प्रतिष्ठा अधिक होती है उतने ही अंशमें वह लोगोंकी दानवृत्तिको अधिक जाग्रत कर सकती है। पालन-पोषणका आधार मुख्य रूपते प्रतिष्ठा और प्रतिष्ठाजनित लोगोंकी दानवृत्ति है, इसलिए संस्थाको कुछ नियमोंका कर्तव्य रूपसे पालन करना पड़ता है। पर उन व्रत-नियमोंका पालन करते करते धीरे धीरे वह संस्था नियमोंका एक यंत्र बन जाती है । गुण और दोष __ त्यागी-संस्थामें यदि किसी परिवर्तनका विचार करना हो, तो उसके गुण और दोष तटस्थ रीतिसे देखने चाहिए। उसका सबसे पहला और मुख्य गुण यह है कि वह जिस मूल प्रवर्तक पुरुषके कारण खड़ी होती है, उसके उपदेश, ज्ञान और जीवन-रहस्यकी सुरक्षा करती है। केवल रक्षा ही नहीं, उसके द्वारा उक्त उपदेश आदिमें गंभीरताका विकास होता है और टीका-विवेचनद्वारा एक विशाल और मार्मिक साहित्यका निर्माण होता है । परन्तु साथ ही उसमें एक दोष भी प्रविष्ट होता जाता है और वह है स्वतंत्र बुद्धि और स्वतंत्र पुरुषार्थको कमी। संस्थाके निर्माणके साथ ही उसका एक विधान भी बन जाता है । इस विधानके वर्तुलमें जाने अनजाने जिस नियम-चक्रकी अधीनतामें रहना पड़ता है उसमें निर्भयताका गुण प्रायः दब जाता है और विचार, वाणी तथा वर्तनमें भयका तत्व प्रविष्ट होता है । इससे उसके बुद्धिशाली और पुरुषार्थी सभ्य भी अक्सर संस्थाका अंग होनेके कारण अपनी स्वतंत्र बुद्धि और स्वतंत्र पुरुषार्थका विकास नहीं कर सकते। उन्हें बाध्य होकर मूलपुरुषके नियत मार्गपर चलना पड़ता है, इसलिए वे बहुत बार अपनी बुद्धि और पुरुषार्थके द्वारा स्वतंत्र सत्यकी शोध करने में निष्फल होते हैं । जहाँ संकोच और भय है, वहाँ स्वतंत्र बुद्धि और स्वतंत्र पुरुषार्थके विकास होनेकी संभावना ही नहीं। यदि कोई वैज्ञानिक संकुचित और भयशील वातावरणमें रहता है, तो वह अपनी स्वतंत्र बुद्धि और पुरुषार्थका यथेष्ट उपयोग नहीं कर सकता। इसलिए शक्तिशाली सभ्य भी स्यागी संस्थाने विचार और ज्ञानविषयक कुछ हिस्सा भले ही अदा कर दें, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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