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त्यागी-संस्था
प्रत्येक समाजमें त्यागी संस्था वैदिक, बौद्ध, सिक्ख, पारसी, जैन आदि आर्य जातिके समाज लीजिए, या मुसलमान क्रिश्चियन, कोनफ्युश्यस आदि आर्येतर जातिके समाज लीजिए, या भील, कोली, संथाल आदि जंगली या असंस्कृत जातियोंके समाज लीजिए, सबमें धर्मपंथ हैं और प्रत्येक धर्मपंथमें किसी न किसी प्रकारकी त्यागी-संस्था भी है, इसलिए मनुष्यजातिके अस्तित्व और विकासके साथ साथ त्यागीसंस्थाका अस्तित्व और विकास भी अनिवार्य है।
सुधार अनिवार्य त्यागी-संस्था एक विशेष भूमिकाके बाद उदयमें आती है, उसका भरणपोषण और प्रवृत्ति कार्य विशेष संयोगोंमें चलता है। कभी कभी ऐसे संयोग भी उपस्थित होते हैं कि उसमें भ्रष्टाचार अधिक प्रमाणमें प्रविष्ट हो जाता है, उपयोगिताकी अपेक्षा अनुपयोगिताका तत्त्व बढ़ जाता है और वह गिलटी या बकरीके गलेके स्तन जैसी अनुपयोगी भी हो जाती है, तब उसमें फिर सुधार शुरू होता है। यदि सुधारक अधिक अनुभवी और दृढ़ होता है तो वह अपने सुधारके द्वारा उस संस्थाको बचा लेता है। इस तरह संस्थाका अस्तित्व और प्रवृत्ति, उसमें विकार और सुधार, क्रमशः चलते रहते हैं। किसी भी समाज और पंथकी त्यागी संस्थाका इतिहास देख लीजिए वह समय समयपर सुधार दाखिल किये जानेपर ही जीवित रह सकी है। बुद्ध या महावीर, जीसस या मुहम्मद, शंकर या दयानंद समय समयपर आते रहते हैं और अपनी अपनी प्रकृति, परिस्थिति और समझके अनुसार परापूर्वसे For Private & Personal Use Only
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