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________________ कि लघीयस्त्रयमें प्रमाण, नय, और निक्षेपका वर्णन है पर वह प्राचीन होनेसे इस विकसित युगके वास्ते पर्याप्त नहीं है । इसी तरह शायद उन्होंने यह भी सोचा हो कि दिगम्बराचार्यकृत लघीयस्त्रय जैसा, पर नवयुगके अनुकूल विशेषोंसे युक्त श्वेताम्बर परम्पराका मी एक अन्य होना चाहिए । इसी इच्छा से प्रेरित होकर नामकरण आदिमें मोक्षाकर आदिका अनुसरण करते हुए भी उन्होंने विषयकी पसंदगीमें तथा उसके विभाजनमें जैनाचार्य अकलहका ही अनुसरण किया। उपाध्यायजीके पूर्ववती श्वेताम्बर-दिगम्बर अनेक आचार्योंके तर्क विषयक सूत्र व प्रकरण अन्थ हैं पर अकलहके लघीयस्त्रयके सिवाय ऐसा कोई तर्क विषयक ग्रन्थ नहीं है जिसमें प्रमाण, नय और निक्षेप तीनोंका तार्किक शैलीसे एक साथ निरूपण हो। अतएव उपाध्यायजीकी विषय पसंदगीका आधार लघीयस्त्रय ही है इसमें तनिक भी संदेह नहीं रहता । इसके सिवाय उपाध्यायजीकी प्रस्तुत कृतिमें लघीयस्त्रयके अनेक वाक्य ज्योंके त्यों हैं जो उसके आधारत्वके अनुमानको और मी पुष्ट करते हैं। बाह्यस्वरूपका थोड़ा सा इतिहास जान लेनेके बाद आन्तरिक स्वरूपका मी ऐतिहासिक वर्णन आवश्यक है। जैनतर्कभाषाके विषयनिरुपणके मुख्य आधारभूत दो जैन ग्रन्थ हैंसटीक विशेषावश्यकभाष्य और सटीक प्रमाणनयतत्त्वालोक । इसी तरह इसके निरूपणमें मुख्यतया आधारभूत दो न्याय प्रन्थ भी हैं-कुसुमाञ्जलि और चिन्तामणि । इसके अलावा विषय निरूपणमें दिगम्बरीय न्यायदीपिकाका मी थोड़ा सा साक्षात् उपयोग अवश्य हुआ है । जैनतर्कभाषाके नयनिरूपण आदिके साथ लघीयस्त्रय और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदिका शब्दशः साहश्य अधिक होनेसे यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि इसमें लपीयस्त्रय तथा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकका साक्षात् उपयोग क्यों नहीं मानते, पर इसका जवाब यह है कि उपाध्यायजीने जैनतर्कभाषाके विषयनिरूपणमें वस्तुतः सटीक प्रमाणनयतत्त्वालोकका तार्किक ग्रन्थ रूपसे साक्षात् उपयोग किया है। लघीयस्त्रय, तत्वार्थश्लोकवार्षिक आदि दिगम्बरीय अन्योंके आधारसे सटीक प्रमाणनयतत्त्वालोककी रचना की जानेके कारण जैनतर्कभाषाके साथ लघीयस्त्रय और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकका शब्दसारश्य सटीक प्रमाणनयतस्वालोकके द्वारा ही आग है, साक्षात् नहीं। मोक्षाकरने धर्मकीरिके न्यायविन्दुको आधारभूत रखकर उसके कतिपय सूत्रोंकी व्याख्यारूपसे थोड़ा बहुत अन्य अभ्य, शास्त्रार्षीय विषय पूर्ववर्ती बौद्ध ग्रन्थों में से लेकर अपनी नातिसंक्षिप्त नातिविस्तृत ऐसी पठनोपयोगी तर्कभाषा लिखी। केशव मिझने मी भक्षपादके प्रथम सूत्रको आधार रख कर उसके निरूपणमें संक्षेप रूपसे नैयायिकसम्मत सोलह पदार्य और पैशेषिकसम्मत सात पदार्थोंका विवेचन किया। दोनोंने अपने अपने मन्तब्यकी सिद्धि करते हुए तत्कालीन विरोधी मन्तव्योंका भी जहाँ तहाँ सपन किया है। उपाध्यायनीने मी इसी सरणीका भवलम्बन करके जैनतर्फभाषा रची। उनोंने मुख्यतया प्रमाणनयतस्याकोक के सूत्रों को ही नहाँ संभव है भाषार बनाकर उनकी व्याख्या अपने डंगसे की है। पाल्याने ग्रास कर पवज्ञाननिरूपणके प्रसहमें सटीक विशेषावश्यकभाष्यका ही अपन। पाकीके प्रमाण भौर नय निरूपणमें प्रमाणनयतवाडोककी व्याख्या-रलाकरका अवलम्बन गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001070
Book TitleJain Tarka Bhasha
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P055
File Size8 MB
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