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प्रमाणसमुच्चयवृत्तिमें निर्दिष्ट 'तर्कशास्त्र' नाम सही है तो उस प्राचीन समयमें पाये जानेवाले न्यायशब्दयुक्त नामोंकी परम्पराका यह एक ही अपवाद है जिसमें कि न्याय शब्दके बदले तर्क शब्द हो। ऐसी परम्पराके होते हुए भी न्याय शब्दके स्थानमें 'तर्क' शब्द लगाकर तर्कभाषा नाम रखनेवाले और उस नामसे धर्मकीर्तिकृत न्यायबिन्दुके पदार्थों पर ही एक प्रकरण लिखनेवाले बौद्ध विद्वान मोक्षाकर हैं, जो बारहवीं शताब्दीके माने जाते हैं। मोक्षाकरकी इस तर्कभाषा कृतिका प्रभाव वैदिक विद्वान् केशव मिश्र पर पड़ा हुआ जान पड़ता है जिससे उन्होंने वैदिक परम्परानुसारी अक्षपादके न्यायसूत्रका अवलम्बन लेकर अपना तर्कभाषा नामक ग्रन्थ तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दीमें रचा। मोक्षाकरका जगत्तल बौद्धविहार केशव मिश्रकी मिथिलासे बहुत दूर न होगा ऐसा जान पड़ता है । उपाध्याय यशोविजयजीने बौद्ध विद्वान्की
और वैदिक विद्वान्की दोनों 'तर्कभाषाओं' को देखा तब उनकी भी इच्छा हुई कि एक ऐसी तर्कभाषा लिखी जानी चाहिए, जिसमें जैन मन्तव्योंका वर्णन हो। इसी इच्छासे प्रेरित होकर उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ रचा और उसका केवल तर्कभाषा यह नाम न रखकर जैनतर्कभाषा ऐसा नाम रखा। इसमें कोई संदेह नहीं कि उपाध्यायजीकी जैनतर्कभाषा रचनेकी कल्पनाका मूल उक्त दो तर्कभाषाओंके अवलोकनमें है । मोक्षाकरीय तर्कभाषाकी प्राचीन ताडपत्रीय प्रति पाटणके भण्डारमें है जिससे जान पड़ता है कि मोक्षाकरीय तर्कभाषाका जैन भण्डारमें संग्रह तो उपाध्यायजीके पहिले ही हुआ होगा पर केशवमिश्रीय तर्कभाषाके जैन भण्डारमें संगृहीत होनेके विषयमें कुछ भारपूर्वक कहा नहीं जा सकता । संभव है जैन भण्डारमें उसका संग्रह सबसे पहिले उपाध्यायजीने ही किया हो क्योंकि इसकी भी विविध टीकायुक्त अनेक प्रतियाँ पाटण आदि अनेक स्थानोंके जैन साहित्यसंग्रहमें हैं।
मोक्षाकरीय तर्कभाषा तीन परिच्छेदोंमें विभक्त है जैसा कि उसका आधारभूत न्यायविन्दु भी है। केशवमिश्रीय तर्कभाषामें ऐसे परिच्छेद विभाग नहीं हैं। अतएव उपाध्यायनीकी जैनतर्कभाषाके तीन परिच्छेद करनेकी कल्पनाका आधार मोक्षाकरीय तर्कभाषा है ऐसा कहना असंगत न होगा। जैनतर्कभाषाको रचनेकी, उसके नामकरणकी और उसके विभागकी कल्पनाका इतिहास थोड़ा बहुत ज्ञात हुआ। पर अब प्रश्न यह है कि उन्होंने अपने प्रन्थका जो प्रतिपाद्य विषय चुना और उसे प्रत्येक परिच्छेदमें विभाजित किया उसका आधार कोई उनके सामने था या उन्होंने अपने आप ही विषयकी पसंदगी की और उसका परिच्छेद अनुसार विभाजन भी किया है। इस प्रश्नका उत्तर हमें भट्टारक अकलकके लघीयस्त्रयके अवलोकनसे मिलता है। उनका लघीयस्त्रय जो मूल पद्यबद्ध है और स्वोपज्ञविवरणयुक्त है उसके मुख्यतया प्रतिपाद्य विषय तीन हैं-प्रमाण, नय और निक्षेप । उन्हीं तीन विषयोंको लेकर न्याय प्रस्थापक अकलाने तीन विभागमें लघीस्त्रयको रचा जो तीन प्रवेशमें विभाजित है। बौद्धवैदिक दो तर्कमाषाओंके अनुकरणरूपसे जैनतर्कभाषा बनानेकी उपाध्यायजीकी इच्छा तो हुई थी ही पर उन्हें प्रतिपाद्य विषयकी पसंदगी तथा उसके विभागके वास्ते अकलककी कृति मिल गई जिससे उनकी अन्थनिर्माणयोजना ठीक बन गई । उपाध्यायजीने देखा
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