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________________ प्रज्ञ तार्किकप्रवर विद्यानन्दके कठिनतर अष्टसहस्री नामक ग्रन्थके ऊपर कठिनतम व्याख्या भी लिखी। गुजराती और हिंदी-मारवाड़ी में लिखी हुई उनकी कृतियोंका थोड़ा बहुत वाचन, पठन । व प्रचार पहिले ही से रहा है; परंतु उनकी संस्कृत-प्राकृत कृतियों के अध्ययन-अध्यापनका नामोनिशान भी उनके जीवन कालसे लेकर ३० वर्ष पहले तक देखने में नहीं आता। यही सबब है कि ढाई सौ वर्ष जितने कम और खास उपद्रवोंसे मुक्त इस सुरक्षित समयमें भी उनकी सब कृतियाँ सुरक्षित न रहीं। पठन-पाठन न होनेसे उनकी कृतियोंके ऊपर टीका टिप्पणी लिखे जानेका तो संभव रहा ही नहीं पर उनकी नकलें भी ठीक-ठीक प्रमाणमें होने न पाई। कुछ कृतियाँ तो ऐसी भी मिल रही हैं कि जिनकी सिर्फ एक एक प्रति रही। संभव है ऐसी ही एक-एक नकल वाली अनेक कृतियाँ या तो लुप्त हो गई, या किन्हीं अज्ञात स्थानोंमें तितर बितर हो गई हों। जो कुछ हो पर अब मी उपाध्ययजीका जितना साहित्य लभ्य है उतने मात्रका ठीक-ठीक पूरी तैयारीके साथ अध्ययन किया जाय तो जैन परम्पराके चारों अनुयोग तथा आगमिक, तार्किक कोई विषय अज्ञात न रहेंगे। __ उदयन और गनेश जैसे मैथिल तार्किक पुङ्गवोंके द्वारा जो नव्य तर्कशास्त्रका बीजारोपण व विकास प्रारम्भ हुआ और जिसका व्यापक प्रभाव व्याकरण, साहित्य, छन्द, विविधदर्शन और धर्मशास्त्र पर पड़ा और खूब फ़ैला उस विकाससे वञ्चित सिर्फ दो सम्प्रदायका साहित्य रहा। जिनमेंसे बौद्ध साहित्यकी उस त्रुटिकी पूर्तिका तो संभव ही न रहा था क्योंकि बारहवीं तैरहवीं शताब्दीके बाद भारतवर्ष में बौद्ध विद्वानोंकी परम्परा नाम मात्रको भी न रही इसलिए वह त्रुटि उतनी नहीं अखरती जितनी जैन साहित्यकी वह त्रुटि । क्योंकि जैनसम्प्रदायके सैकड़ों ही नहीं बल्कि हजारों साधनसम्पन्न त्यागी व कुछ गृहस्थ भारतवर्षके प्रायः सभी भागोंमें मौजूद रहे, जिनका मुख्य व जीवनव्यापी ध्येय शास्त्रचिन्तनके सिवाय और कुछ कहा ही नहीं जा सकता। इस जैन साहित्यकी कमीको दूर करने और अकेले हायसे पूरी तरह दूर करनेका उज्ज्वल व स्थायी यश अगर किसी जैन विद्वानको है तो वह उपाध्याय यशोविजयजीको ही है। ग्रन्थ-प्रस्तुत ग्रन्थके जैनतर्कभाषा इस नामकरणका तथा उसे रचनेकी कल्पना उत्पन्न होनेका, उसके विभाग, प्रतिपाद्य विषयका चुनाव आदिका बोधप्रद व मनोरञ्जक इतिहास है जो अवश्य ज्ञातव्य है । ___ जहाँ तक मालूम है इससे पता चलता है कि प्राचीन समयमें तर्कप्रधान दर्शन प्रन्थोंकेचाहे वे वैदिक हों, बौद्ध हों या जैन हों-नाम 'न्याय' पदयुक्त हुआ करते थे। जैसे कि न्यायसूत्र, न्यायमाष्य, न्यायवार्तिक, न्यायसार, न्यायमञ्जरी, न्यायबिन्दु, न्यायमुख, न्यायाबतार आदि । अगर प्रो० ट्यूचीका रखा हुआ 'तर्कशास्त्र' यह नाम असलमें सच्चा ही है या 1. Pre-Dinnag Buddhist Logic मत 'तर्कशास्त्र' नामक प्रन्थ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001070
Book TitleJain Tarka Bhasha
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P055
File Size8 MB
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