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अवश्य ही कहा जा सकता है कि उन्होंने अन्य जैन साधुओंकी तरह मन्दिरनिर्माण, मूर्तिप्रतिष्ठा, संघनिकालना आदि बहिर्मुख धर्मकार्यों में अपना मनोयोग न लगाकर अपना सारा जीवन जहाँ वे गये और जहाँ वे रहे वहीं एक मात्र शास्त्रोंके चिन्तन तथा नव्य - शास्त्रोंके निर्माण में लगा दिया ।
उपाध्यायजी की सब कृतियाँ उपलब्ध नहीं हैं । कुछ तो उपलब्ध हैं पर अधूरी । कुछ बिलकुल अनुपलब्ध हैं । फिर भी जो पूर्ण उपलब्ध हैं, वे ही किसी प्रखर बुद्धिशाली और प्रबल पुरुषार्थीके आजीवन अभ्यासके वास्ते पर्याप्त हैं। उनकी लभ्य, अलभ्य और अपूर्ण लभ्य कृतियोंकी अभी तककी यादी अलग दी जाती है जिसके देखने से ही यहां संक्षेपमें किया जानेवाला उन कृतियों का सामान्य वर्गीकरण व मूल्याङ्कन पाठकोंके ध्यान में आ सकेगा ।
उपाध्यायजीकी कृतियाँ संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिंदी - मारवाड़ी इन चार भाषाओं में गद्यबद्ध पद्यबद्ध और गद्य-पद्यबद्ध | दार्शनिक ज्ञानका असली व व्यापक खजाना संस्कृत भाषा में होनेसे तथा उसके द्वारा ही सकल देशके सभी विद्वानोंके निकट अपने विचार उपस्थित करनेका संभव होनेसे उपाध्यायजीने संस्कृतमें तो लिखा ही, पर उन्होंने अपनी जैनपरम्पराकी मूलभूत प्राकृत भाषाको गौण न समझा । इसीसे उन्होंने प्राकृत में भी रचनाएँ कीं । संस्कृत-प्राकृत नहीं जानने वाले और कम जानने वालों तक अपने विचार पहुँचाने के लिए उन्होंने तत्कालीन गुजराती भाषामें भी विविध रचनाएँ कीं । मौका पाकर कभी उन्होंने हिंदी - मारवाड़ीका भी आश्रय लिया ।
विषयदृष्टिसे उपाध्याय जीका साहित्य सामान्य रूपसे आगमिक, तार्किक दो प्रकारका होनेपर भी विशेष रूपसे अनेक विषयावलम्बी है । उन्होंने कर्मतत्त्व, आचार, चरित्र आदि अनेक आगमिक विषयों पर आगमिक शैलीसे भी लिखा है; और प्रमाण, प्रमेय, नय, मङ्गल, मुक्ति, आत्मा, योग आदि अनेक तार्किक विषयों पर भी तार्किक शैलीसे ख़ासकर नव्य तार्किकरौली से लिखा है । व्याकरण, काव्य, छन्द, अलङ्कार, दर्शन आदि सभी तत्काल प्रसिद्ध शास्त्रीय विषयों पर उन्होंने कुछ न कुछ पर अति महत्त्वका लिखा ही है ।
शैलीकी दृष्टिसे उनकी कृतियाँ खण्डनात्मक भी हैं, प्रतिपादनात्मक भी हैं और समन्वयात्मक भी । जब वे खण्डन करते हैं तब पूरी गहराई तक पहुँचते हैं । प्रतिपादन उनका सूक्ष्म और विशद है । वे जब योगशास्त्र या गीता आदिके तत्त्वोंका जैनमन्तव्यके साथ समन्वय करते हैं तब उनके गम्भीर चिन्तनका और आध्यात्मिक भावका पता चलता है । उनकी अनेक कृतियाँ किसी अन्यके ग्रन्थकी व्याख्या न होकर मूल, टीका या दोनों रूपसे स्वतन्त्र ही हैं, जब कि अनेक कृतियाँ प्रसिद्ध पूर्वाचार्यों के प्रन्थोंकी व्याख्यारूप हैं उपाध्यायजी थे पक्के जैन और श्वेताम्बर । फिर भी विद्या विषयक उनकी दृष्टि इतनी विशाल थी कि वह अपने सम्प्रदाय मात्रमें समा न सकी अतएव उन्होंने पातञ्जल योगसूत्रके ऊपर भी लिखा और अपनी तीव्र समालोचनाकी लक्ष्य-दिगम्बर परम्परा के सूक्ष्म
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