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नामक गुजरातके सूबेके समक्ष अठारह अवधान किये। इस विद्वत्ता और कुशलतासे आकृष्ट होकर सभीने पं० यशोविजयजीको 'उपाध्याय' पदके योग्य समझा श्री विजयदेव सूरिके शिष्य श्रीविजयप्रभसूरिने उन्हें सं० १७१८ में वाचक - उपाध्याय पद समर्पण किया ।
वि० सं० १७४३ में डभोई गाँव, जो बड़ौदा स्टेटमें अभी मौजूद है उसमें उपाध्यायजीका स्वर्गवास हुआ जहाँ उनकी पादुका वि० सं० १७४५ में प्रतिष्ठित की हुई अभी विद्यमान है ।
उपाध्ययजी के शिष्य परिवारका निर्देश 'सुजशवेली' में तो नहीं है पर उनके तत्त्वविजय, आदि शिष्यप्रशिष्यों का पता अन्य साधनोंसे चलता है जिसके वास्ते 'जैन गूर्जरकविओ ' भा० २. पृ० २७ देखिए ।
उपाध्यायजीके बाह्य जीवनकी स्थूल घटनाओंका जो संक्षिप्त वर्णन ऊपर किया है, उसमें दो घटनाएँ ख़ास मार्केकी हैं जिनके कारण उपाध्यायजीके आन्तरिक जीवनका स्रोत यहाँतक अन्तर्मुख होकर विकसित हुआ कि जिसके बल पर वे भारतीय साहित्य में और ख़ासकर जैन परम्परामें अमर हो गए । उनमें से पहली घटना अभ्यासके वास्ते काशी जानेकी और दूसरी न्याय आदि दर्शनोंका मौलिक अभ्यास करने की है । उपाध्यायजी कितने ही बुद्धि व प्रतिभासम्पन्न क्यों न होते उनके वास्ते गुजरात आदिमें अध्ययनकी सामग्री कितनी ही क्यों न जुटाई जाती, पर इसमें कोई संदेह ही नहीं कि वे अगर काशीमें न आते तो उनका शास्त्रीय व दार्शनिक ज्ञान, जैसा उनके ग्रन्थोंमें पाया जाता है, संभव न होता । काशी में आकर भी वे उस समय तक विकसित न्यायशास्त्र ख़ास करके नवीन न्याय - शास्त्रका पूरे बलसे अध्ययन न करते तो उन्होंने जैन- परम्पराको और तद्द्वारा भारतीय साहित्यको जैन विद्वान्की हैसियतसे जो अपूर्व भेंट दी है वह कभी संभव न होती ।
दसवीं शताब्दीसे नवीन न्यायके विकासके साथ ही समग्र वैदिक दर्शनों में ही नहीं बल्कि समग्र वैदिक साहित्यमें सूक्ष्म विश्लेषण और तर्ककी एक नई दिशा प्रारम्भ हुई और उत्तरोत्तर अधिक से अधिक विचारविकास होता चला जो अभी तक हो ही रहा है । इस नवीनन्यायकृत नव्य युगमें उपाध्यायजीके पहले भी अनेक श्वेताम्बर दिगम्बर विद्वान् हुए जो बुद्धि - प्रतिभासम्पन्न होनेके अलावा जीवन भर शास्त्रयोगी भी रहे फिर भी हम देखते हैं कि उपाध्यायजीके पूर्ववर्ती किसी जैन विद्वान्ने जैन मन्तव्यका उतना सतर्क दार्शनिक विश्लेषण व प्रतिपादन नहीं किया जितना उपाध्यायजीने किया है । इस अन्तरका कारण उपाध्यायजीके काशीगमनमें और नव्यन्यायशास्त्रके गम्भीर अध्ययनमें ही है। नवीनन्यायशास्त्र के अभ्याससे और तन्मूलक सभी तत्कालीन वैदिक दर्शनोंके अभ्याससे उपाध्यायजीका सहज बुद्धि प्रतिभासंस्कार इतना विकसित और समृद्ध हुआ कि फिर उसमेंसे अनेक शास्त्रोंका निर्माण होने लगा । उपाध्यायजीके ग्रन्थोंके निर्माणका निश्चित स्थान व समय देना अभी संभव नहीं । फिर भी इतना तो
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