________________
यों कहना चाहिए कि पञ्चज्ञान और निक्षेपकी चर्चा तो विशेषावश्यकभाष्य और उसकी वृत्तिका संक्षेप मात्र है और परोक्ष प्रमाणोंकी तथा नयोंकी चर्चा प्रमाणनयतत्त्वालोककी व्याख्यारनाकरका संक्षेप है । उपाध्यायजी जैसे प्राचीन नवीन सकल दर्शनके बहुश्रुत विद्वान्की कृतिमें कितना ही संक्षेप क्यों न हो पर उसमें पूर्वपक्ष या उत्तरपक्ष रूपसे किंवा वस्तुविश्लेषण रूपसे शास्त्रीय विचारोंके अनेक रंग पूरे जानेके कारण यह संक्षिप्त ग्रन्थ मी एक महत्त्वकी कृति बन गया है। वस्तुतः जैनतर्कभाषा यह आगमिक तथा तार्किक पूर्ववर्ती जैन प्रमेयोंका किसी हद तक नव्यन्यायकी परिभाषामें विश्लेषण है तथा उनका एक जगह संग्रह रूपसे संक्षिप्त पर विशद वर्णन मात्र है।
प्रमाण और नयकी विचारपरम्परा श्वेताम्बरीय ग्रन्थोंमें समान है पर निक्षेपोंकी चर्चापरम्परा उतनी समान नहीं। लघीयस्त्रयमें जो निक्षेपनिरूपण है और उसकी विस्तृत व्याख्या कुमुदचन्द्रमें जो वर्णन है वह विशेषावश्यक भाष्यकी निक्षेप चर्चासे इतना भिन्न अवश्य है जिससे यह कहा जा सके कि तत्त्वमें भेद न होने पर भी निक्षेपोंकी चर्चा दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों परंपरामें किसी अंशमें भिन्नस्वरूपसे पुष्ट हुई, जैसा कि जीवकांड तथा चौथे कर्मग्रन्थके विषयके बारेमें कहा जा सकता है। उपाध्यायजीने जैनतर्कभाषाके बाह्यरूपकी रचनामें लघीयस्त्रयका अवलम्बन लिया जान पड़ता है, फिर भी उन्होंने अपनी निक्षेप चर्चा तो पूर्णतया विशेषावश्यकभाष्यके आधारसे ही की है।
तात्पर्यसंग्रहा वृत्ति-पठनपाठनका प्रचार न होनेके कारण जैनतर्कभाषाके ऊपर पीछेसे भी कोई मूलानुरूप उपयुक्त व्याख्याकी रचना अबतक हुई न थी। पिछले तीन वर्षोंसे यह तर्कभाषा बनारस क्वीन्स कालेजके तथा हिन्दू युनिवर्सिटीके जैन अभ्यासक्रममें रखी गई और इसके अभ्यासी भी तैयार होने लगे। तब इसके स्पष्टीकरणका प्रश्न विशेषरूपसे सामने आया। यों तो पच्चीस वर्षके पहिले जब मेरे मित्र पण्डित भगवानदास-महावीर जैन विद्यालय बंबईके धर्माध्यापकने इस तर्कभाषामेंसे कुछ मुझसे पूछा तभीसे इसकी ओर मेरा ध्यान गया था। इसके बाद भी इसपर थोडासा विचार करनेका तथा इसके गूढ़ भावोंको स्पष्ट करनेका जब जब प्रसंग आया तब तब मनमें यह होता था कि इसके ऊपर एक अच्छी व्याख्या आवश्यक है। लम्बे समयकी इस भावना को कार्यमें परिणत करनेका अवसर तो इसके पाठ्यक्रममें रखे जानेके बाद ही आया । जैनतर्कभाषाके पुनः छपानेके प्रश्नके साथ ही इसके ऊपर एक व्याख्या लिखनेका भी प्रश्न आया। और अन्तमें निर्णय किया कि इसपर व्याख्या लिखी ही जाय।
भनेक मित्रोंकी खास कर पं० श्रीमान् जिनविजयजीकी इच्छा रही कि टीका संस्कृतमें ही लिखना ठीक होगा। इसपर मेरे दोनों मित्र-५० महेन्द्रकुमार-अध्यापक स्यावाद महाविद्यालय, बनारस तथा पं० दसमुख मालपणिया के साथ परामर्श किया कि व्याख्याका स्वरूप कैसा हो।। मन्तमें हम तीनोंने टीकाका स्वरूप निश्चित कर तदनुसार ही जैनतर्फ भाषाफे ऊपर यह रति लिली, और इसका नाम तात्पर्यसंग्रहा रखा । नामकी योजना अर्थानुरिणी होनेसे इसके पीछेका भाव पतला देना जरूरी है जिससे मन्यासी उसका मूल्य व उपयोग समझ सके।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org