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है। अब जो किसी खास बातकी आवश्यकता है तो वह है जैन शास्त्रोंके अच्छे शास्त्रीय पद्धतिसे किये गये संशोधन-संपादनपूर्वक उत्तम संस्करणों की। अपने शास्त्रोंका प्रचार करने की अभिलाषावाले जैन संघके ज्ञानप्रेमी जनोंको लिये यह परम कर्त्तव्य उपस्थित हुआ है, कि अब जैन साहित्य के उन ग्रन्थरत्नोंको, उस तरह से अलंकृत कर प्रकाश में लाये जायँ, जिससे अध्ययनाभिलापी विद्यार्थियोंको और अध्यापक जनोंको अपने अध्ययन-अध्यापनमें प्रोत्साहन मिले। जैन प्रवचनकी सच्ची प्रभावना ऐसा ही करने से होगी ।
यद्यपि, इतः पूर्व, जैन समाज के कुछ विद्यानुरागो श्रमण और श्रावक वर्गने, जैन ग्रन्थों का प्रकाशन कर कितना एक उत्तम एवं प्रशंसनीय कार्य किया है, और अब भी कर रहे हैं; लेकिन उनकी वह कार्यपद्धति, आधुनिक ग्रन्थ सम्पादनकी विद्वन्मान्य पद्धति और विशिष्ट उपयोगिताकी दृष्टिसे अलंकृत न होनेसे, उनके प्रकाशन कार्यका जितना प्रचार और समादर होना चाहिए, उतना नहीं हो पाता। उनके प्रकाशित वे ग्रन्थ प्रायः लिखित रूपसे मुद्रित रूपमें परिवर्तित मात्र कर दिये हुए होते हैं, इससे विशेष और कोई संस्कार उनपर नहीं किया जाता; और इस कारणसे, उनका जो कुछ उचित महत्त्व है, वह विद्वानोंके लक्ष्य में योग्यरूपसे नहीं आने पाता । यद्यपि हीरेका वास्तविक मूल्याङ्कन उसकी अन्तर्निहित तेजस्विता के आधारपर ही होता रहता है; तथापि सर्वसाधारणकी दृष्टिमें उसके मूल्यकी योग्यता कुशल शिल्पी द्वारा उसपर किये गये मनोरम संस्कार और यथोचित परिवेष्टनादि द्वारा ही सिद्ध होती रहती है । ठीक यही हाल ग्रन्थ रत्नका है। किसी भी ग्रन्थका वास्तविक महत्त्व उसके अन्दर रहे हुए अर्थगौरव के अनुसार ही निर्धारित होता रहता है, तथापि, तद्विद् मर्मज्ञ संपादक द्वारा उसका उचित संस्कार समापन्न होने पर और विषयोपयुक्त उपोद्घात्, टीका, टिप्पणी, तुलना, समीक्षा, सारालेखन, पाठ-भेद, परिशिष्ट, अनुक्रम इत्यादि यथायोग्य परिवेष्टनादि द्वारा अलंकृत होकर प्रकाशित होने पर, सर्व साधारण अभ्यासियों के लक्ष्य में उस प्रन्थकी उपयोगिताका वह महत्त्व, आ सकता है ।
सिंघी जैन प्रन्थमालाका आदर्श इसी प्रकार प्रन्थोंका संपादन कर प्रकाशित करनेका । इसका लक्ष्य यह नहीं है कि कितने ग्रन्थ प्रकाशित किये जायँ, लेकिन यह है कि किस प्रकार ग्रन्थ प्रकाशित किये जायँ । संस्कारप्रिय बाबू श्रीबहादुर सिंहजी सिंघीका ऐसा ही उच्च ध्येय है, और उसी ध्येयके अनुरूप, इस ग्रन्थमाला के दार्शनिक अङ्गका यह प्रथम गन्थरत्न, इसके सुमर्मज्ञ बहुश्रुत विद्वान् संपादक द्वारा इस प्रकार सर्वाङ्ग संस्कृत-परिस्कृत होकर प्रकाशित हो रहा है।
इसके सम्पादन और संस्करणके विषय में विशेष कहने की कोई आवश्यकता नहीं है । हाथ कंकणको आरसीकी क्या जरूरत है । जो अभ्यासी हैं और जिनका इस विषय में अधिकार है वे इसका महत्त्व स्वयं समझ सकते हैं। अध्यापकवर्य पण्डित श्रीसुखलालजीका जैन दर्शन विषयक अध्ययन, अध्यापन, चिन्तन, अवलोकन, संशोधन, संपादन आदि अनुभव गंभीर, तलस्पर्शी, तुलनामय, मर्मग्राही और स्पष्टावभासी है। पण्डितजीके इस प्रखर अवबोधका जितना दीर्घ परिचय हमको है उतना और किसी को नहीं है । आज प्रायः
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