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________________ २० से भी अधिक वर्ष व्यतीत हो गये, हम दोनों अपने ज्ञानमय जीवनकी दृष्टिसे एक पथके पथिक बने हुए हैं और हमारा बाह्य जीवन सहवास और सहचार भी प्रायः एकाधिकरण रहा है। तर्कशालके जो दो चार शब्द हम जानते हैं वे हमने इन्हींसे पढ़े हैं। अत एव इस विषयके ये हमारे गुरु हैं और हम इनके शिष्य है। इसलिये इनके ज्ञानके विषयमें हमारा अभिप्राय अधिकारयुक्त हम मानते हैं। पण्डितजीके इस दार्शनिक पाण्डित्यका विशिष्टत्व निदर्शक तो, सन्मतिप्रकरण नामक जैन तर्कका सबसे महान और आकर स्वरूप ग्रन्थका वह संस्करण है जो अहमदाबादके गूजरात पुरातत्त्व मन्दिर द्वारा प्रकाशित हुआ है। पचीस हजार श्लोक परिमाणवाले उस महाकाय ग्रन्थकी प्रत्येक पङ्क्ति अशुद्धियोंसे भरी पड़ी थी। उसका कोई भी ऐसा पुरातन आदर्श उपलब्ध नहीं है जो इन अशुद्धियोंके पुंजसे प्रभ्रष्ट न हो। धर्मचक्षुविहीन होनेपर भी अनेक आदर्शों के शुद्धाशुद्ध पाठोंका परस्पर मिलान कर, बहुत ही सूक्ष्मताके साथ प्रत्येक पद और प्रत्येक वाक्यकी अर्थसंगति लगाकर, उस महान ग्रन्थका जो पाठोद्धार इन्होंने किया है वह इनकी 'प्रज्ञाचक्षुता'का विम्मयावबोधक प्रमाण है। इसी जैनतर्कभाषा के साथ साथ, सिंघी जैन ग्रन्थमालाके लिये, ऐसा ही आदर्श सम्पादनवाला एक उत्तम संस्करण, हेमचन्द्रसूरि रचित प्रमाणमीमांसा नामक तर्क विषयक विशिष्ट प्रन्थका भी पण्डितजी तैयार कर रहे हैं, जो शीघ्र ही समाप्त प्रायः होगा। तुलनात्मक दृष्टिसे न्यायशालकी परिभाषाका अध्ययन करनेवालोंके लिये 'मीमांसा' का यह संस्करण एक महत्त्वकी पुस्तक होगी। बौद्ध, ब्राह्मण और जैन दर्शनके पारिभापिक शब्दोंकी विशिष्ट तुलनाके साथ उनका ऐतिहासिक क्रम बतलामेवाला जैसा विवेचन इस ग्रन्थके साथ संकलित किया गया है, वैसा संस्कृत या हिन्दीके और किसी ग्रन्थमें किया गया हो ऐसा हमें ज्ञात नहीं है। _यद्यपि, इसमें हमारा कोई कर्तृत्व नहीं है, तथापि हमारे लिये यह हार्दिक आहादकी बात है कि, हमारी प्रेरणाके वशीभूत होकर, शारीरिक दुर्बलताकी अस्वस्थकर परिस्थितिमें भी, आज तीन चार वर्ष जितने दीर्घ समयसे सतत बौद्धिक परिश्रम उठाकर, पण्डितजीने इन शानमणियोंको इस प्रकार सुसज्जित किया और सिंघी जैन ग्रन्थमालाके सूत्र में इन्हें पिरोकर वद्वारा मालाकी प्रतिष्ठामें हमें अपना सहयोग देते हुए 'सहवीर्य करवावहै' वाले महर्षियों के मन्त्रको चरितार्थ किया। अन्वमें हमारी प्रार्थना है कि-'तेजस्वि नावधीतमस्तु ।' अनेकान्त विहार शांतिनगर, अहमदाबाद जिन विजय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001070
Book TitleJain Tarka Bhasha
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P055
File Size8 MB
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