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सकता है । जिनके सात सौ पुरुषों तकके पूर्वजोंने जिस ब्रह्मवाद, शून्यवाद या स्याद्वादका कभी नाम भी नहीं सुना था और जिनकी जीभ इन शब्दोंका उच्चारण करनेमें भी ठीक समर्थ नहीं हो सकती, वे पश्चिमी आर्य, आज इन तत्त्ववादोंके, हम भारतीय आर्यों से अधिकतर पारगामी समझे जाते हैं । ब्रह्मवादका महत्त्व आज हम किसी काशीनिवासी ब्राह्मण महामहोपाध्यायके वचनोंसे वैसा नहीं समझते जैसा आंग्लद्वीपवासी डाक्टर मॅक्षमुल्लरके शब्दों द्वारा समझते हैं; शून्यवादका रहस्य हम किसी लंकावासी बौद्ध महाथेरके कथनों से वैसा नहीं अवगत कर सकते जैसा रूसवासी यहुदी विद्वान् डॉ० त्सेरवेटत्स्की के लेखों द्वारा कर सकते हैं । स्याद्वादका तात्पर्य हम किसी जैनसूरिचक्रचक्रवर्तीकी जिह्वा से वैसा नहीं सुन सकते जैसा जर्मन पण्डित डॉ० हेरमान याकोबीके व्याख्यानोंमें सुन पाते हैं । यह सब देखसुनकर हमें मानना और कहना पड़ता है कि अब समय बदला है ।
जिनके पूर्वजोंने एक दिन यह घोषणा की थी कि - ' न वदेद् यावनीं भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि उन्हीं ब्राह्मणोंकी सन्तान आज प्राणोंके कण्ठ तक आ जानेपर भी यावनी भाषाका पारायण नहीं छोड़ती । और, इसी घोषणाके उत्तरार्द्ध में उन्हीं भूदेवोंने अपनी सन्तानोंके लिये यह भी कह रखा था - 'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेत् जैनमन्दिरम्' वे ही ब्राह्मणपुत्र आज प्रत्येक जैन उपाश्रय में शूद्रप्राय समझते हुए भी जैन भिक्षुओंकों अहर्निश शास्त्राध्ययन कराते हैं और विशिष्ट दक्षिणा प्राप्त करने की लालसा से मनमें महामूर्ख मानते हुए भी किसी को 'शास्त्रविशारद' और किसीको 'सूरिसम्राट्' कहकर उनकी काव्यप्रशस्तियां गाते हैं ।
अब ब्रह्मविद्या और आर्हतप्रवचन केवल मठों और उपाश्रयों में बैठकर ही अध्ययन करनेकी वस्तु नहीं रहीं। उनके सम्मानका स्थान अब ब्राह्मण और श्रमण गुरुओंकी गद्दियाँ नहीं समझी जातीं, लेकिन विश्वविद्यालयोंके व्याख्यान- व्यासपीठ माने जाते हैं। कौनसे विद्यापीठ किस शास्त्रको अपने पाठ्यक्रममें प्रविष्ट किया है, इसपर से उस शास्त्रका वैशिष्ट्य समझा जाता है और उसके अध्ययन-अध्यापनकी ओर अभ्यासियोंकी जिज्ञासा आकर्षित होती है । अब अध्यापकगण भी चाहे वह फिर ब्राह्मण हो या चाहे अन्य किसी वर्णका - शूद्र ही क्यों न हो- सभी शास्त्रोंका सहानुभूतिपूर्वक पठन-पाठन करते-कराते हैं और तत्त्वजिज्ञासा पूर्वक उनका चिन्तन-मनन करते हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय तथा कलकत्ता, बम्बई और इलाहाबादकी युनिवर्सिटियोंने अपने अध्ययन विषयो में अन्यान्य ब्राह्मण शास्त्रोंके साथ जैन
को भी स्थान दिया है और तदनुसार उन विद्यापीठोंके अधीनस्थ कई महाविद्यालयों में इन शास्त्रों का पठन-पाठन भी नियतरूपसे हो रहा है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालयने तो जैनशास्त्र के अध्यापककी एक स्वतन्त्र गद्दी भी प्रतिष्ठित की है ।
इस प्रकार, शास्त्रप्रसार निमित्तक इस नवयुगीन नवविधानके कारण, अनेक विद्यार्थी जैन शास्त्रोंका अध्ययन करने लगे हैं और जैन न्यायतीर्थ न्यायविशारद आदि उपाधियों से विभूषित होकर विद्योत्तीर्ण होने लगे हैं। जो विद्या और जो ज्ञान पूर्वकालमें बहुत ही कष्ट साध्य और अति दुर्लभ समझा जाता था वह आज बहुत ही सहज साध्य और सर्वत्र सुलभ जैसा हो गया
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