SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ५ ] विशेष व्यापक होता है । वे कमसे कम न्यायशास्त्रके तो मौलिक ग्रन्थोंका अवश्य परिचय प्राप्त करते हैं; और इसके उपरान्त, जिन कितने एक जैन तर्क ग्रन्थोंका वे अध्ययन-मनन करते हैं, उनमें, थोड़ी बहुत, सब ही दर्शनोंकी चर्चा और आलोचना की हुई होती है । इससे सभी दर्शनोंके मूलभूत सिद्धान्तोंका थोड़ा-बहुत परिचय जैन तर्काभ्यासियोंको जरूर रहा करता है। भारतीय इतिहासके भिन्न-भिन्न युगों और उसके प्रमुख प्रज्ञाशालियोंका जब हम परिचय करते हैं तब हमें यह एक ऐतिहासिक तथ्य विदित होता है कि जिस तरह जैन विद्वानोंने अन्य दार्शनिक सिद्धान्तोंका अविपर्यासभावसे अवलोकन और सत्यता-पूर्वक समालोचन किया है, वैसे अन्य विद्वानोंने-खासकर ब्राह्मण विद्वानोंने-जैन सिद्धान्तोंके विषयमें नहीं किया । उदाहरणके लिये वर्तमान युगके एक असाधारण महापुरुष गिने जाने लायक स्वामी दयानन्दका उल्लेख किया जा सकता है। स्वामीजीने अपने सत्यार्थप्रकाश नामक सर्वप्रसिद्ध ग्रन्थमें जैन दर्शनके मन्तव्योंके विषयमें जो ऊटपटांग और अंड-बंड बातें लिखी हैं, वे यद्यपि विचारशील विद्वानोंकी दृष्टि में सर्वथा नगण्य रही हैं। तथापि उनके जैसे युगपुरुषकी कीर्तिको वे अवश्य कलङ्कित करने जैसी हैं और अक्षम्य कोटि में आनेवाली भ्रान्तिकी परिचायक हैं। इसी तरह हम यदि उस पुरातन काल के ब्रह्मवादी अद्वैताचार्य स्वामी शङ्करके ग्रन्थोंका पठन करते हैं तो उनमें भी, स्वामी दयानन्दके जैसी निन्द्यकोटिकी तो नहीं, लेकिन भ्रान्तिमूलक और विपर्याससूचक जैनमत-मीमांसा अवश्य दृष्टिगोचर होती है। स्वामी शङ्कराचार्यने अपने ब्रह्मसूत्रों के भाष्यमें, अनेकान्तसिद्धान्तका जिन युक्तियों द्वारा खण्डन करनेका प्रयत्न किया है, उन्हें पढ़कर, किसी भी निष्पक्ष विद्वानको कहना पड़ेगा कि-या तो शङ्काराचाये अनेकान्त सिद्धान्तसे प्रायः अज्ञान थे या उन्होंने ज्ञानपूर्वक इस सिद्धान्तका विपर्यासभावसे परिचय देनेका असाधु प्रयत्न किया है। यही बात प्रायः अन्यान्य शास्त्रकारों के विषयमें भी कही जा सकती है। इस कथनसे हमारा मतलब सिर्फ इतना ही है कि-ठेठ प्राचीन काल ही से जैन दार्शनिक मन्तव्योंके विषयमें, जैनेतर दार्शनिकोंका ज्ञान बहुत थोड़ा रहा है और स्याद्वाद या अनेकान्त सिद्धान्तका सम्यग् म्हस्य क्या है इसके जाननेकी शुद्ध जिज्ञासा बहुत थोड़े विद्वानोंको जागरित हुई है। अस्तु, भूतकालमें चाहे जैसा हुआ हो; परंतु, अब समय बदला है। वह पुरानी मतअसहिष्णुता धीरे-धीरे बिदा हो रही है । संसारमें ज्ञान और विज्ञानकी बड़ी अद्भुत और बहुत वेगवाली प्रगति हो रही है। मनुष्य जातिकी जिज्ञासावृत्तिने आज बिलकुल नया रूप धारण कर लिया है। एक तरफ हजायें विद्वान् भूतकालके अज्ञेय रहस्यों और पदार्थोको सुविज्ञेय करनेमें आकाश-पाताल एक कर रहे हैं। दूसरी तरफ़ हजारों विद्वान् शांत विचारों और सिद्धान्तोंका विशेष व्यापक अवलोकन और परीक्षण कर उनकी सत्य-असत्यता और तात्विकताची मीमांसाके पीछे हाथ धो कर पड़ रहे हैं। भारतीय तत्त्वज्ञान जो कलतक सात्र ब्राह्मणों और श्रमणोंके मठोंकी ही देवोत्तर सम्पत्ति समझी जाती थी वह आज सारे भूखण्डवासियोंकी सर्वसामान्य सम्पत्ति बन गई है। पृथ्वीके किसी भी कोनेमें रहने वाला कोई भी रंग या जातिका मनुष्य, यदि चाहे तो आज इस सम्पत्तिका यथेष्ट उपभोग कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001070
Book TitleJain Tarka Bhasha
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P055
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy