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________________ करने पर जो विचार युक्तिसंगत सिद्ध हो उसका स्वीकार करना चाहिए-चाहे फिर वह विचार किसीका क्यों न हो। यह कथन तो तीर्थकर महावीरका किया हुआ है इसलिये इसमें कोई शंका न होनी चाहिए, और यह वचन तो ऋषि कपिलका कहा हुआ है इसलिये इसमें कोई तथ्य नहीं समझना चाहिए-ऐसा पक्षपातपूर्ण विचार-कदाग्रह जैन तार्किकोकी दृष्टिमें कुत्सित माना गया है। श्रद्धा-प्रधान उस प्राचीन युगके ये परीक्षाकारक विचार निस्सन्देह महत्त्वका स्थान रखते हैं। जैन तार्किकोंने अपने दार्शनिक मन्तव्योंका केन्द्र स्थान अनेकान्त सिद्धान्त बनाया और 'स्यात्' शब्दाकित वचन भंगीको उसकी स्वरूपबोधक विचार-पद्धति स्थिर कर उस 'स्याद्वाद' को अपना तात्त्विक ध्रुवपद स्थापित किया। इस अनेकान्त सिद्धान्त और स्याद्वाद विचार-पद्धतिने जैन विद्वानोंको तत्त्व-चिन्तन और तर्क-निरूपण करनेमें वह एक विशिष्ट प्रकारकी समन्वय दृष्टि प्रदान की जिसकी प्राप्तिसे तत्त्वज्ञ पुरुष, राग-द्वेषरूप तिमिरपरिपूर्ण इस तमोमय संसार कान्तारको सरलता पूर्वक पार कर अपने अभीष्ट आनन्द स्थानको अव्याबाधतया अधिकृत कर सकता है। जीव और जगत्-विषयक अस्तित्व नास्तित्व नित्यत्वअनित्यत्व एकत्व-अनेकत्व आदि जो भिन्न भिन्न एवं परस्पर विरोधी सिद्धान्त तत्तत् तत्त्ववेत्ताओं और मत प्रचारकोंने प्रस्थापित किये हैं उनका जैसा सापेक्ष रहस्य इस समन्वय दृष्टिके प्रकाशमें ज्ञात हो सकता है, वह अन्यथा अज्ञेय होगा। इस समन्वय दृष्टिवाला तत्त्वचिन्तक, किसी एक विचार या सिद्धान्तके पक्ष में अभिनिविष्ट न होकर वह सभी प्रकार के विचारोंसिद्धान्तोंका मध्यस्थता पूर्वक अध्ययन और मनन करने के लिये तत्पर रहेगा। उसकी जिज्ञास बुद्धि किसी पक्षविशेषके प्रस्थापित मत-विचारमें आग्रहवाली न बनकर, निष्पक्ष न्यायाधीशके विचारकी तरह, पक्ष और विपक्षके अभिनिवेशसे तटस्थ रहकर, सत्यान्वेषण करने के लिये उद्यत रहेगी। वह किसी युक्ति विशेषको वहाँपर नहीं खींच ले जायगा, जहां उसकी मति चोट रही हो, लेकिन वह अपनी मतिको वहाँ ले जायगा, जहां युक्ति अपना स्थान पकड़े बैठी हो। अनेकान्त सिद्धान्तके अनुयायिओंके ये उदार उद्गार हैं। शायद, ऐसे उद्गार अन्य सिद्धान्तोंके अनुगामिओंके साहित्यमें अपरिचिति होंगे। ऊपरकी इन कण्डिकाओंके कथनसे ज्ञात होगा कि, जैन साहित्यका यह दार्शनिक अन्यात्मक अंग भी, समुचय भारतीय दर्शन-साहित्यके रङ्ग मण्डपमें कितना महत्त्वका स्थान रखता है। विना जैन तर्कशास्त्रका विशिष्ट आकलन किये, भारतीय तत्त्वज्ञानके इतिहासका अन्वेषण और अवलोकन अपूर्ण ही कहलायगा । जैनेतर विद्वानोंमें, बहुत ही अल्प ऐसे दार्शनिक विद्वान् होंगे जो जैन वकं ग्रन्थोंका कुछ विशिष्ट अभ्ययन और मान करते हों। विद्वानोंका बहुत बड़ा समूह तो यह मी नहीं जानता होगा कि स्याद्वाद या अनेकान्तवाद क्या चीज है। हजारों ही ब्राह्मण पण्डित तो यह भी ठीक नहीं जानते होंगे कि बौद्ध और जैन दर्शनमें क्या भेद है। जो कोई विद्वान माधवाचार्यका बनाया हुआ सर्वदर्शनसंग्रह नामक ग्रंथका अध्ययन करते हैं उन्हें कुछ थोड़ा बहुत ज्ञान जैन दर्शनके सिद्धान्तोंका होता है। इसके विपरीत जैन विद्वानोंका दार्शनिक ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001070
Book TitleJain Tarka Bhasha
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P055
File Size8 MB
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