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समयमें-जैन तार्किक भी इस तर्क भूमिके उच्च-नीच और सम-विषम तलोंमें सतत चंक्रमण करते रहे हैं और अपने समकक्ष ब्राह्मण और बौद्ध मतके दार्शनिकों और तत्त्वचिन्तकोंकी तत्त्वचर्चा में समानरूपसे भाग लेते रहे हैं। बौद्ध और ब्राह्मण पण्डितोंकी तरह जैन पण्डितोंने भी अनेक नये तर्क और विचार उपस्थित किये; अनेक नये सिद्धान्त स्थापित किये। अनेक वादियोंके साथ उन्होंने वाद-विवाद किया और अनेक शास्त्रोंका खण्डन-मण्डन किया। जीव, जगत् और कालकी कल्पनाओं के समुद्रमन्थनमें उन्होंने भी अपना पूरा योग दिया। पक्ष-प्रतिपक्षकी विचार भूमिमें ब्राह्मण और बौद्ध तार्किकों के साथ उन्होंने भी अपने तर्क तुरग खूब वेगके साथ दौड़ाये और अपने साथियों के साथ बराबर रहनेकी पूरी कसरत की। इसके फल स्वरूप अनेक उत्तमोत्तम ग्रन्थरत्न निर्मित हुए और उनसे जैन साहित्यकी समृद्धिका शिखर अधिकतर उन्नत हुआ।
जैन विद्वानोंने दार्शनिक विचारोंकी मीमांसा करनेवाले अनेकानेक ग्रन्थ बनाये हैं। इनमें कई ग्रन्थ मौलिक सिद्धान्त प्रतिपादन करनेवाले शास्त्र ग्रन्थ हैं, कई दार्शनिक और न्यायशास्त्रकी परिभाषाओंका संचय करनेवाले संग्रह ग्रन्थ हैं। कई अनेक मतों और तत्त्वोंका निरूपण करनेवाले समुच्चय ग्रन्थ हैं और कई विशाल विवेचना करनेवाले व्याख्या ग्रन्थ हैं । इन जैन तार्किकोंमेंसे कई विद्वानोंने-खास करके श्वेताम्बर सम्प्रदायानुयायी आचार्योनेकितने एक बौद्ध और ब्राह्मण शास्त्रोंपर भी, बहुत ही निष्पक्ष दृष्टिपूर्वक, मूल ग्रन्थकारोंके भावं की अविकल रक्षा करते हुए, प्रौढ़ पाण्डित्यपूर्ण दीकाएँ की हैं, जो उन ग्रन्थों के अध्येताओंके लिये उत्तम कोटिकी समझो जाती हैं। बौद्ध महातार्किक दिङ्नागके न्यायप्रवेश सूत्र ऊपर जैनतर्कशिरोमणि हरिभद्र सूरिकी टीका, तथा ब्राह्मण महानैयायिक भासर्वज्ञके न्यायसार नामक प्रतिष्ठित शास्त्र पर जैन न्यायविद् जयसिंह सूरिकी व्याख्या इसके प्रांजल उदाहरण हैं।
इन जैन दार्शनिक ग्रन्थोंका सूक्ष्मताके साथ अवलोकन करनेसे हमें इस बातका बहुत कुछ ज्ञान हो सकता है कि-भारतमें दार्शनिक विचारोंका, किस क्रमसे विकास और विस्तार हुआ। इन जैन तर्क ग्रन्थों में से, कई एक ऐसे दार्शनिक सिद्धान्तों और विचारोंका भी पता लगता है जो प्रायः पीछे से विलुप्त हो गये हैं और जिनका उल्लेख अन्य शास्त्रोंमें अप्राप्य है। आजीवक, त्रैराशिक, कापालिक, और कई प्रकारके तापस मत इनके विषय में जितनी ज्ञातव्य बातें जैन तर्क ग्रन्थों में प्राप्त हो सकती हैं, उतनी अन्य तर्क शास्त्रों में नहीं। इन जैन तार्किकोंने चार्वाक मतको भी पड्दर्शनके अन्तर्हित माना और उसको जैन, बौद्ध, सांख्य, न्याय और मीमांसा दर्शनकी समान पंक्तिमें बिठाया। उन्होंने कहा, चार्वाक मत भी भारतीय तत्त्वज्ञानरूप विराट् पुरुषका वैसा ही महत्त्वका एक अङ्ग है जैसे अन्यान्य प्रधान मत हैं।
जैन तार्किकोंके दार्शनिक विचार परीक्षाप्रधान रहे। किसी आगम विशेषमें कथित होनेसे ही कोई विचार निर्धान्त सिद्ध नहीं हो सकता; और किसी तीर्थकर या आप्त-विशेषके नामकी छाप लगी रहनेसे ही कोई कथन या वचन अबाधित नहीं माना जा सकता। आगमकी भी परीक्षा होनी चाहिए और आप्त पुरुषकी भी परीक्षा करनी चाहिए। परीक्षा
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