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[ २ ] और दूसरा कारण यह है कि-जैन वाङ्मयका यह विभाग, जैन धर्म और समाजकी दृष्टिसे तो महत्त्वका है ही, लेकिन तदुपरान्त, यह समुच्चय भारतवर्षके सर्वसाधारण प्रजाकीय और राजकीय इतिहासकी दृष्टि से भी उतना ही महत्त्वका है। जैनधर्मीय साहित्यका यह ऐतिहासिक अङ्ग जितना परिपुष्ट है उतना भारतके अन्य किसी धर्म या सम्प्रदायका नहीं । न ब्राह्मणधर्मीय साहित्यमें इतनी ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध होती है, न बौद्धधर्मीय साहित्यमें। इसलिये जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है, तदनुसार जैन ग्रन्थभण्डारोंमें जहाँ तहाँ नाशोन्मुख दशामें पड़ी हुई यह ऐतिहासिक साधन-सम्पत्ति जो, यदि समुचित रूपसे संशोधित-सम्पादित होकर प्रकाशित हो जाय, तो इससे जैन धर्मके गौरवकी ख्याति तो होगी ही, साथ में भारतके प्राचीन स्वरूपका विशेष ज्ञान प्राप्त करने में भी उससे विशिष्ट सहायता प्राप्त होगी और सद्द्वारा जैन साहित्यकी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा विशेष प्रख्यापित होगी। इन्हीं दो कारणोंसे प्रेरित होकर हमने सबसे पहले इन इतिहास विषयक ग्रन्थोंका प्रकाशन करना प्रारम्भ किया। इसके फलस्वरूप अद्यपर्यन्त, इस विषयके ६-७ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं और प्रायः १०-१२ तैयार हो रहे हैं।
___ अब, प्रस्तुत ग्रन्थके प्रकाशनके साथ, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, जैन प्रवचनका विशिष्ट आधारभूत जो दार्शनिक अङ्ग है तद्विषयक साहित्यके प्रकाशनका उपक्रम करती है और इसके द्वारा ध्येय-निर्दिष्ट कार्यप्रदेशके एक विशेष महत्त्वके क्षेत्रमें पदार्पण करती है।
जैन साहित्यका यह दार्शनिक विभाग भी, इतिहास-विभागके जितना ही सर्वोपयोगी और आकर्षक महत्त्व रखता है। भारतवर्षकी समुच्चय गंभीर तत्त्वगवेषणाका यह भी एक बहुत बड़ा और महत्त्वका विचारभंडार है। पूर्वकालीन जैन श्रमणोंने आत्मगवेषणा और मोक्षसाधनाके निमित्त जो कठिनसे कठिनतर तपस्या की तथा अगम्यके ध्यानकी और आनन्त्यके ज्ञानकी सिद्धि प्राप्त करने के लिये जो घोर तितिक्षा अनुभूत की-उसके फल स्वरूप उन्हें भी कई ऐसे अमूल्य विचाररत्न प्राप्त हुए जो जगत्के विशिष्ट कल्याणकारक सिद्ध हुए। अहिंसाका वह महान विचार जो आज जगत्की शांतिका एक सर्व श्रेष्ठ साधन समझा जाने लगा है और जिसकी अप्रतिहत शक्तिके सामने संसारकी सर्व संहारक शक्तियाँ कुण्ठित होती दिखाई देने लगी हैं। जैन दर्शन-शास्त्रका मौलिक तत्त्वविचार है। इस अहिंसाकी जो प्रतिष्ठा जैन दर्शनशास्त्रोंने स्थापित की है वह अन्यत्र अज्ञात है। मुक्तिका अनन्य साधन अहिंसा है और उसकी सिद्धि करना यह जैन दर्शनशास्त्रोंका चरम उद्देश है। इसलिये इस अहिंसाके सिद्धान्तका आकलन यह तो जैन दार्शनिकोंका आदर्श रहा ही, लेकिन साथमें, उन्होंने अन्यान्य दार्शनिक सिद्धान्तों और तात्त्विक विचारोंके चिन्तनसमुद्र में भी खूब गहरे गोते लगाये हैं और उसके अन्तस्तल तक पहुँच कर उसकी गंभीरता और विशालताका नाप लेने के लिये पूरा पुरुषार्थ किया है। भारतीय दर्शनशास्त्रका ऐसा कोई विशिष्ट प्रदेश या कोना बाक़ी नहीं है जिसमें जैन विद्वानोंकी विचारधाराने मर्मभेदक प्रवेश न किया हो। महाबादी सिद्धसेन दिवाकरसे लेकर न्यायाचार्य महोपाध्याय यशोविजयजीके समय तकके-अर्थात् भारतीय दर्शनशास्त्र के समग्र इतिहास में दृष्टिगोचर होनेवाली प्रारम्भिक संकलनाके उद्गम कालसे लेकर उसके विकासके अन्तिम पर्व तकके सारे ही सर्जन
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