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प्रन्थकार का परिचय की तरह लोगों को आनन्द देनेवाला था, इसलिए वह हेमचन्द्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ। समग्र लोक के उपकारार्थ विविध देशों में वह विहार करता था अतः श्रीदेवचन्द्रसूरि ने उसे कहा-'गुर्जर देश छोड़कर अन्य देशों में विहार मत कर । जहाँ तू रहा है वहीं महान् परोपकार करेगा।' वह गुरु के वचन से देशान्तर में विहार करना छोड़कर यहीं ( गुर्जरदेशपाटन में ) भव्यजनों को जागरित करता रहता है।" ___ इस वर्णन में से एक बात विशेष उल्लेखनीय है । आचार्य हेमचन्द्र गुर्जर देश में और पाटन में स्थिर हुए उससे पहले उन्होंने भारतवर्ष के इतर भागों में विहार किया होगा और गुरु देवचन्द्र की आज्ञा से उनका विहार गुर्जर देश में ही मर्यादित हुआ।
सोमप्रभसूरि का वर्णन सामान्य रूप का है। आचार्य का जीवन-वृत्तान्त जाननेवालों के सामने कहा हो ऐसा है। अतएव हमारे लिए पीछे के ग्रन्थ और प्रबन्ध तफसील के लिए आधार रूप हैं।
चंगदेव के कुटुम्ब का धर्म कौनसा होगा ? । सोमप्रभसूरि पिता के लिए इतना ही कहते हैं कि 'कयदेवगुरुजणच्चो चच्चो ( देव और गुरुजन की अर्चा करनेवाला चच्च )।' और वे माता चाहिणी के केवल शील का ही वर्णन करते हैं। मामा नेमि देवचन्द्रसूरि का उपदेश सुनने के लिए आया है इस पर से वह जैनधर्मानुरागी जान पड़ता है। के पीछे के ग्रन्थ चच्च को मिथ्यात्वी कहते हैं। इस पर से वह जैन तो नहीं होगा ऐसा विश्वास होता है । प्रबन्ध चिन्तामणि के उल्लेख के अनुसार पैसे की लालच दी जाने पर वह उसे 'शिवनिर्माल्य' वत् समझता है; अतएव वह माहेश्वरी ( आजकल का मेश्री ) होगा । चाहिनी जैनधर्मानुरागी हो ऐसा सम्भव है; पीछे से वह जैन-दीक्षा लेती है ऐसा प्रबन्धों में उल्लेख है।
सोमचन्द्र को इक्कीस वर्ष की आयु में वि० सं० ११६६ (ई० स० १११०) में सूरिपद मिला । इस संवत्सर के विषय में मतभेद नहीं है । इस समय से वह हेमचन्द्र के नाम से ख्यात हुआ । कुमारपाल प्रतिबोध के अनुसार सूरिपद का महोत्सव नागपुर ( नागोर-मारवाड़ ) में हुआ। इस प्रसंग पर खर्च करनेवाले वहीं के एक व्यापारी धनद का नाम बतलाया गया है । ____ इतनी अस्पायु में इतने महत्त्व का स्थान हेमचन्द्र को दिया गया यह समकालीनों पर पड़े हुए उनके प्रभाव का प्रतीक है। जयसिंह सिद्धराज को भी 'पुरातनप्रबन्धसंग्रह' के
१देखो कुमारपाल प्रतिबोध पृ० २२. २ देखो प्रबन्धचिन्तामणि पृ. ८३. ३ इस समय मेश्री बनिये प्रायः वैष्णव होते हैं ।
४ एक ही कुटुम्ब में भिन्न भिन्न धर्मानुराग होने के अनेक दृष्टान्त भारत के इतिहास में प्रसिद्ध हैं और दो दशक पूर्व गुजरात में अनेक वैश्य कुटुम्ब ऐसे थे जिनमें ऐसी स्थिति विद्यमान थी। देखो काव्यानुशासन प्रस्तावका पृ० २५९ ।
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