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________________ १६ प्रस्तावना आगमिक साहित्य के प्राचीन और अति विशाल खजाने के उपरान्त तत्त्वार्थ से लेकर स्याद्वादरत्नाकर तक के संस्कृत व तार्किक जैन साहित्य की भी बहुत बड़ी राशि हेमचन्द्र के परिशीलन पथ में आई जिससे हेमचन्द्र का सर्वाङ्गीण सर्जक व्यक्तित्व सन्तुष्ट होने के बजाय एक ऐसे नये सर्जन की ओर प्रवृत्त हुवा जो तब तक के जैन वाङ्मय में अपूर्व स्थान रख सके 1 । दिङ्नाग के न्यायमुख, न्यायप्रवेश आदि से प्रेरित होकर सिद्धसेन ने जैन परंपरा में न्याय - परार्थानुमान का अवतार कर ही दिया था । समन्तभद्र ने अक्षपाद के प्रावादुकों (अध्याय चतुर्थ) के मतनिरास की तरह आप्त की मीमांसा के बहाने सप्तभङ्गी की स्थापना में पर प्रवादियों का निरास कर ही दिया था । तथा उन्होंने जैनेतर शासनों से जैन शासनकी विशेष सयुक्तिकता का अनुशासन भी युक्त्यनुशासन में कर ही दिया था । धर्मकीर्ति के प्रमाण वार्तिक, प्रमाणविनिश्चय आदि से बल पाकर तीक्ष्णदृष्टि अकलङ्क ने जैन न्याय का विशेष निश्चय - व्यवस्थापन तथा जैन प्रमाणों का संग्रह अर्थात् विभाग, लक्षण आदि द्वारा निरूपण अनेक तरह से कर दिया था । अकलङ्क ने सर्वज्ञत्व, जीवत्व आदिकी सिद्धि के द्वारा धर्मकीर्ति जैसे प्राज्ञ बौद्धों को जवाब भी दिया था । सूक्ष्मप्रज्ञ विद्यानन्द ने आप्त की, पत्र की और प्रमाणों की परीक्षा द्वारा धर्मकीर्ति की तथा शान्तरक्षित की विविध परीक्षाओं का जैन परंपरा में सूत्रपात भी कर ही दिया था माणिक्यनन्दी ने परीक्षामुख के द्वारा न्यायबिन्दु के से सूत्र ग्रन्थ की कमी को दूर कर ही दिया था। जैसे धर्मकीर्ति के अनुगामी विनीतदेव, धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर, अर्चट आदि प्रखर तार्किकों ने उनके सभी मूल ग्रन्थों पर छोटे बड़े भाष्य या विवरण लिखकर उनके ग्रन्थों को पठनीय तथा विचारणीय बनाकर बौद्ध न्यायशास्त्र को प्रकर्ष की भूमिका पर पहुँचाया था वैसे ही एक तरफ से दिगम्बर परंपरा में अकलङ्क के संक्षिप्त पर गहन सूक्तों पर उनके अनुगामी अनन्तवीर्य, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र और वादिराज जैसे विशारद तथा पुरुषार्थी तार्किकों ने विस्तृत व गहन भाष्य-विवरण आदि रचकर जैन न्याय शास्त्र को अतिसमृद्ध बनाने का सिलसिला भी जारी कर ही दिया था और दूसरी तरफ से श्वेताम्बर परंपरा में सिद्धसेन के संस्कृत तथा प्राकृत तर्क प्रकरणों को उनके अनुगामिओं ने टीका ग्रन्थों से भूषित करके उन्हें विशेष सुगम तथा प्रचारणीय बनाने का भी प्रयत्न इसी युग में शुरू किया था । इसी सिलसिले में से प्रभाचन्द्र के द्वारा प्रमेयों के कमल पर मार्तण्ड का प्रखर प्रकाश तथा न्याय के कुमुदों पर चन्द्र का सौम्य प्रकाश डाला ही गया था । अभयदेव के द्वारा तत्त्वबोधविधायिनी टीका या वादार्णव रचा जाकर तत्त्वसंग्रह तथा प्रमाणवार्तिकालङ्कार जैसे बड़े ग्रन्थों के अभाव की पूर्ति की गई थी । वादि देव ने रत्नाकर रचकर उसमें सभी पूर्ववर्ती जैन ग्रन्थरनों का पूर्णतया संग्रह कर दिया था । यह सब हेमचन्द्र के सामने था । पर उन्हें मालूम हुआ कि उस न्याय-प्रमाण विषयक साहित्य में कुछ भाग तो ऐसा है जो अति महत्त्व का होते हुए भी एक २ विषय की ही चर्चा करता है या बहुत ही संक्षिप्त है । दूसरा भाग ऐसा है कि जो है तो सर्वविषयसंग्राही पर वह उत्तरोत्तर इतना अधिक विस्तृत तथा शब्दक्लिष्ट है कि जो सर्व साधारण के अभ्यास का विषय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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