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________________ भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान १७ बन नहीं सकता । इस विचार से हेमचन्द्र ने एक ऐसा प्रमाण विषयक ग्रन्थ बनाना चाहा जो कि उनके समय तक चर्चित एक भी दार्शनिक विषय की चर्चा से खाली न रहे और फिर भी वह पाठ्यक्रम योग्य मध्यम कद का हो। इसी दृष्टि में से 'प्रमाणमीमांसा' का जन्म हुआ । इसमें हेमचन्द्र ने पूर्ववर्ती आगमिक तार्किक सभी जैन मन्तव्यों को विचार व मनन से पचा कर अपने ढंग की विशद व अपुनरुक्त सूत्रशैली तथा सर्वसंग्राहिणी विशदतम स्वोपज्ञ वृत्ति में सन्निविष्ट किया । यद्यपि पूर्ववर्ती अनेक जैन ग्रन्थों का सुसंबद्ध दोहन इस मीमांसा में है जो हिन्दी टिप्पणों में की गई तुलना से स्पष्ट हो जाता है फिर भी उसी अधुरी तुलना के आधार से यहाँ यह भी कह देना समुचित है कि प्रस्तुत ग्रन्थके निर्माण में हेमचन्द्र ने प्रधान किन किन ग्रन्थों या ग्रन्थकारों का आश्रय लिया है। निर्युक्ति, विशेषावश्यक भाष्य तथा तत्वार्थ जैसे आगमिक ग्रन्थ तथा सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलङ्क, माणिक्यनन्दी और विद्यानन्द की प्रायः समस्त कृतियाँ इसकी उपादान सामग्री बनी हैं। प्रभाचन्द्र के मार्तण्ड का भी इसमें पूरा असर है। अगर अनन्तवीर्य सचमुच हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती या समकालीन वृद्ध रहे होंगे तो यह भी सुनिश्चत है कि इस ग्रन्थ की रचना में उनकी छोटीसी प्रमेयरत्नमाला का विशेष उपयोग हुआ है । वादी देवसूरि की कृति का भी उपयोग इसमें स्पष्ट है; फिर भी जैन तार्किकों में से अकलङ्क और माणिक्यनन्दी का ही मार्गानुगमन प्रधानतया देखा जाता है । उपयुक्त जैनग्रन्थों में आए हुए ब्राह्मण बौद्ध ग्रन्थों का उपयोग हो जाना तो स्वाभाविक ही था; फिर भी प्रमाणमीमांसा के सूक्ष्म अवलोकन तथा तुलनात्मक अभ्यास से यह भी पता चल जाता है कि हेमचन्द्र ने बौद्ध - ब्राह्मण परंपरा के किन किन विद्वानों की कृतिओं का अध्ययन व परिशीलन विशेषरूप से किया था जो प्रमाणमीमांसा में उपयुक्त हुआ हो । दिङ्नाग, खास कर धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, अर्चट और शान्तरक्षित ये बौद्ध तार्किक इनके अध्ययन के विषय अवश्य रहे हैं । कणाद, भासर्वज्ञ, व्योमशिव, श्रीधर, अक्षपाद, वात्स्यायन, उद्योतकर, जयन्त, वाचस्पति मिश्र, शबर, प्रभाकर, कुमारिल आदि जुदी जुदी वैदिक परंपराओं के प्रसिद्ध विद्वानों की सब कृतियाँ प्रायः इनके अध्ययन की विषय रहीं । चार्वाक एकदेशीय जयराशि भट्ट का Tags भी इनकी दृष्टि के बाहर नहीं था । यह सब होते हुए भी हेमचन्द्र की भाषा तथा निरूपण शैली पर धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, अर्चट भासर्वज्ञ, वात्स्यायन, जयन्त, वाचस्पति, कुमारिल आदि का ही आकर्षक प्रभाव पड़ा हुआ जान पड़ता है। अतएव यह अधूरे रूप में उपलब्ध प्रमाणमीमांसा भी ऐतिहासिक दृष्टि से जैन तर्कसाहित्य में तथा भारतीय दर्शनसाहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखती है । +44 S४ भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का तत्त्वज्ञान की दृष्टि से क्या स्थान है इसे ठीक २ समझने के लिये मुख्यतया दो प्रश्नों पर विचार करना ही होगा । जैनतार्किकों की भारतीय प्रमाणशास्त्रको क्या देन है, जो प्रमाणमीमांसा में सन्निविष्ट हुई हो और जिसको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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