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जैन तर्कसाहित्य में प्रमाणमीमांसा का स्थान अपने मन्तव्यों को जिस तरह दार्शनिकों के सामने रखने योग्य बनाया, वह सब उनके छोटे-छोटे ग्रन्थों में विद्यमान उनके असाधारण व्यक्तित्व का तथा न्याय-प्रमाणस्थापन युग का द्योतक है। ___अकलङ्क के द्वारा प्रारब्ध इस युग में साक्षात् या परंपरा से अकलङ्क के शिष्य-प्रशिष्यों ने ही उनके सूत्रस्थानीय ग्रन्थों को बड़े-बड़े टीकाग्रन्थों से वैसे ही अलङ्कृत किया जैसे धर्मकीर्ति के ग्रन्थों को उनके शिष्यों ने ।
अनेकान्त युग की मात्र पद्यप्रधान रचना को अकलक ने गद्य-पद्य में परिवर्तित किया था पर उनके उत्तरवर्ती अनुगामियों ने उस रचना को नानारूपों में परिवर्तित किया, जो रूप बौद्ध और ब्राह्मण परंपरा में प्रतिष्ठित हो चुके थे। माणिक्यनन्दी अकलङ्क के ही विचार दोहन में से सूत्रों का निर्माण करते हैं। विद्यानन्द अकलङ्क के ही सूक्तों पर या तो भाष्य रचते हैं या तो पद्यवार्तिक बनाते हैं या दूसरे छोटे छोटे अनेक प्रकरण बनाते हैं। अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र और वादिराज जैसे तो अकलङ्कके संक्षिप्त सूक्तों पर इतने बड़े और विशद तथा जटिल भाष्य व विवरण कर डालते हैं कि जिससे तब तक में विकसित दर्शनान्तरीय विचार परंपराओं का एक तरह से जैन वाङ्मय में समावेश हो जाता है। दूसरी तरफ श्वेताम्बर परंपराके आचार्य भी उसी अकलङ्क स्थापित प्रणालीकी ओर झुकते हैं। हरिभद्र जैसे आगमिक और तार्किक ग्रन्थकार ने तो सिद्धसेन और समन्तभद्र आदि के मार्ग का प्रधानतया अनेकान्तजयपता का आदि में अनुसरण किया पर धीरे-धीरे न्याय-प्रमाण विषयक स्वतन्त्र प्रन्थ प्रणयन की प्रवृत्ति मी श्वेताम्बरा परंपरा में शुरू हुई । श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेन ने न्यायावतार रचा था । पर वह निरा प्रारंभ मात्र था। अकलङ्क ने जैन न्याय की सारी व्यवस्था स्थिर कर दी। हरिभद्रने दर्शनान्तरीय सब वार्ताओं का समुच्चय भी कर दिया। इस भूमिका को लेकर शान्त्याचार्य जैसे श्वेतांबर तार्किक ने तर्कवार्तिक जैसा छोटा किन्तु सारगर्भ ग्रन्थ रचा, इसके बाद तो श्वेताम्बर परंपरा में न्याय और प्रमाण ग्रन्थों के संग्रह का, परिशीलन का और नये-नये ग्रन्थ निर्माण का ऐसा पूर आया कि मानो समाजमें तबतक ऐसा कोई प्रतिष्ठित विद्वान् ही न समझा जाने लगा, जिसने संस्कृत भाषा में खास कर तर्क या प्रमाण पर मूल या टीका रूपसे कुछ न कुछ लिखा न हो। इस भावना में से ही अभयदेव का वादार्णव तैयार हुआ जो संभवतः तब तक के जैन संस्कृत ग्रन्थों में सबसे बड़ा है। पर जैन परंपरा पोषक गूजरात गत सामाजिक-राजकीय सभी बलों का सबसे अधिक उपयोग वादीदेव सुरि के किया। उन्होंने अपने ग्रन्थ का स्याद्वादरत्नाकर यथार्थ ही नाम रखा। क्योंकि उन्होंने अपने समय तक में प्रसिद्ध सभी श्वेताम्बर दिगम्बर तार्किकों के विचार का दोहन अपने ग्रन्थ में रख दिया जो स्याद्वाद ही था। और साथ ही उन्होंने अपनी जानीब से ब्राह्मण और बौद्ध परंपरा की किसी भी शाखा के मन्तव्यों की विस्तृत चर्चा अपने ग्रन्थ में न छोड़ी। चाहें विस्तार के कारण वह प्रन्थ पाठ्य रहा न हो पर तर्कशास्त्र के निर्माण में और विस्तृत निर्माण में प्रतिष्ठा मानने वाले जैनमत की बदौलत एक रत्नाकर जैसा समग्र मन्तव्यरत्नों का संग्रह बन गया, जो न केवल तत्वज्ञान की दृष्टि से ही उपयोगी है, पर ऐतिहासिक दृष्टि से भी बड़े महत्त्व का है।
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